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छः-सात वर्ष पूर्व आरामें जैन सिद्धान्त भवनकी हीरक जयन्तीके अवसर पर मिलना हुआ था, उसके बाद अभी तक सुयोग नहीं मिला। किन्तु पत्रोंके आदान-प्रदानमें कोई व्यवधान नहीं पड़ा । कई बार उनके साथ मतभेद भी हुए किन्तु शुद्ध साहित्यिक ( एकेडेमिक ) स्तर पर ही रहे, पारस्परिक सम्बन्धों में कभी भी रंचमात्र कटुता नहीं आई, वरंच सौहार्द में वृद्धि ही हुई । जितने जबरदस्त लिक्खाड़ वह हैं, कम ही देखने में आते हैं । मित्रोंको लिखनेकी निरन्तर प्रेरणा देने वालोंमें भी हमारे अपने अनुभवमें तो अद्विती सिद्ध हुए हैं । यह बात दूसरी है कि उनकी प्रेरणाएँ हमारी अपनी व्यस्तताओं, अस्वास्थ्य और सबसे अधिक प्रमादके कारण विशेष फलवती नहीं हो पातीं और चाहकर तथा चेष्टा करके भी लिखनेकी होड़ में हमने स्वयं को उनसे सदैव कोसों पीछे पाया ।
भाई अगरचन्द नाहटा अवश्य ही न शकल सूरतसे तपस्वी हैं, न रहन-सहन में तपस्वी हैं, किंतु साहित्य की साधना में उनका जो सतत एकनिष्ठ अध्यवसाय है, वह किसी तपस्वीसे कम नहीं है ।
हिन्दी साहित्य जगत् पर सामान्यतः और जैनसाहित्य जगत्पर विशेषतः उनका जो उत्तरोत्तर वृद्धिगंत ऋण है, उससे उऋण नहीं हुआ जा सकता। ऐसे मनस्वी, मनीषी ज्ञानाराधक बन्धु एवं सहयोगी के सुयोगसे कौन गौरवान्वित अनुभव न करेगा । हमारी हार्दिक शुभ कामना है कि बन्धुवर नाहटाजी शतायु हों और स्वस्थ सानन्द रहते हुए भारतीके भंडारको उत्तरोत्तर अधिकाधिक भरते रहें ।
सन् १९५७ की बात है, मैंने कविवर बनारसीदास पर, कुछ महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित प्रतियाँ, जो श्री अगरचन्दजी नाहटाके निजी पुस्तकालय में थीं, देखनेकी इच्छा नाहटाजी के समाने प्रकट की थी । नाहटाजी ने तत्काल जो उत्तर दिया वह आज भी मुझे अक्षरश: याद हैं । "मेरे निजी पुस्तकालय में लगभग ३०,००० हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । उनमें अनेक आपके काम के हैं। आप कभी भी आकर उनका यथेच्छ उपयोग कर सकते हैं । मैंने यह संग्रह आप जैसे शोधकोंके लिए ही तो किया है । आप आइए और मेरे घरमें मेरे भाई की भाँति रहिए । आशा है, आप शीघ्र बीकानेर आएँगे ।"
शोध वारिधि, नररत्न नाहटाजी श्री रवीन्द्र कुमार जैन
मैं नाहटाजीका पत्र प्राप्त करते ही बीकानेर गया । उन्होंने मुझे वहाँ अपना पूरा पुस्तकालय सौंप दिया और स्वयं मेरे लिए अनेक उपयोगी हस्तलिखित एवं मुद्रित प्रतियाँ जुटायीं । मेरा शोधका विषय उनका भी प्रिय विषय था । अतः उन्होंने उसमें सहज ही आशातीत रुचि ली। कविवर बनारसीदासकी रचनाओं पर समीक्षात्मक एवं गवेषणात्मक उनके कई लेख प्रकाशित हो चुके थे । केवल ग्रन्थोंका सुझाव देना और विषयपर अपना महत्त्वपूर्ण मन्तव्य प्रकट करना ही उनके महान् एवं शोधानुरागी व्यक्तित्व के लिए पर्याप्त न था; अतः स्वयं बड़ी तन्मयता एवं सतर्कतासे उन्होंने मेरी उस समय तक तैयार की गयी पांडुलिपिको सुना और कई महत्त्वपूर्ण सुझाव भी दिये। मैं नाहटाजी के घर लगभग आठ दिन रहा। प्रतिदिन वे मुझे तीन-चार घंटे का समय देते रहे । मुझपर उनके इस दिव्य व्यक्तित्वकी अमिट छाप उसी समय पड़ गयी । वे अत्यन्त सरल स्वभावी, सादगीमय, विद्याप्रेमी एवं विद्वत्प्रेमी हैं । वे मूलतः महान् नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्योंमें
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