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साहित्य-तपस्वी नाहटाजी डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ
बन्धवर श्री अगरचन्द नाहटा एक सद्गृहस्थ और सफल व्यापारी हैं। प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा उनकी विशेष नहीं हई-शायद हाईस्कूल पास भी नहीं हैं और न किसी संस्कृत विद्यालय या परीक्षालयकी ही कोई उल्लेखनीय परीक्षा उत्तीर्ण हैं । एक सामान्य बणि कपुत्रको जो कामचलाऊ स्वभाषामें पढ़ने लिखने व हिसाब आदिकी चटसाली शिक्षा होती है उसीको लेकर बह चले।
वेषभूषा, आहार-विहार एवं आदतें अत्यन्त सादा, तड़क भड़ कसे कोसों दूर हैं। __ वास्तवमें, उपरोक्त पृष्ठभूमि वाले व्यक्तिसे जिस बातकी आशा प्रायः नहीं की जाती, उसे नाहटाजीने आश्चर्यजनक रूपमें करके दिखा दिया । साहित्यके क्षेत्रमें जिस चाव, उत्साह, लगन और अध्यवसायके साथ गत लगभग चालीस वर्षोंसे वह उत्कट एवं निरन्तर साधना करते चले आये हैं और फलस्वरूप जैसी और जो-जो उपलब्धियाँ उन्होंने प्राप्त की हैं, उसके अन्य उदाहरण अति विरल हैं।
पुरानी हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज-तपास, अपने निजी पुस्तकालयमें उनका अथवा उनकी प्रतियों का संग्रह-संरक्षण, उनपर शोध और उक्त शोध खोजके परिणामोंसे विद्वद्जगतको तत्परताके साथ परिचित कराते रहना नाहटाजीकी प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियाँ रही हैं।
उनको दृष्टि मूलतः ऐतिहासिक है। तुलनात्मक अध्ययनकी ओर विशेष झुकाव है। उनका कार्यक्षेत्र प्रमुखतया जैन साहित्य रहा है, उसमें भी विशेष रूपसे देशभाषाओं-हिन्दी, राजस्थानी, आदिमें रचित श्वेताम्बर साहित्य, किन्तु वह वहींतक सीमित नहीं है। दिगम्बर अथवा स्थानकवासी आदि साहित्य को जब जहाँ उनके दृष्टिपथमें आया बिना साम्प्रदायिक पक्षपात के उसी प्रकार उनकी दिलचस्पीका विषय इतना ही नहीं, जैनेतर हिन्दी एवं राजस्थानी साहित्य की शोध खोजमें भी नाहटाजीका योगदान पर्याप्त महत्त्वपूर्ण रहा है। विभिन्न विश्वविद्यालयोंके अनेक शोधार्थियोंको भी उनसे अमूल्य सहायता मिलती रहती है।
कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओंके तथा अभिनन्दनग्रन्थ, स्मृतिग्रन्थ, स्मारिकाओं आदिके सम्पादनमें सक्रिय भाग लेनेके अतिरिक्त दर्जनों छोटी-बड़ी पुस्तकों की रचना नाहटाजीने की है। विभिन्न जैनाजैन पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित उनके लेखों की संख्या तो तीन सहस्रसे अधिक हो तो आश्चर्य नहीं ।
. आप दूसरे लेखकों को कृतियों की समीक्षा भी खरी करते हैं । त्रुटियों या गलतियों को दो-टक सीधे शब्दोंमें, बिना किसी तकल्लुफके, गिना डालते हैं। साथ ही यदि स्वयं उनके किसी कथन या कृति की समालोचना कोई दूसरा करता है तो उसे भी अन्यथा नहीं लेते और अपनी भूल सुधार करने में संकोच नहीं करते । .. श्री नाहटाजी की भाषा और शैली पंडिताऊपनसे अछुती, सीधी, सरल, तथ्यपरक होती है। किन्तु लिखते ऐसा शिकस्त हैं कि उनके लेखों और पत्रों को, जब-जब वे स्वयं अपने हाथसे लिखा ही भेज देते हैं, पढ़ना एक अच्छी खासी कसरत हो जाती है । अपनी तो हम जानते है कि तीस वर्षसे कुछ अधिक समयसे उनके साथ पत्राचार है और उनके हाथके लिखे सैकड़ों पत्र प्राप्त हुए, पढ़े भी-पढ़ने पड़े, किन्तु अब भी यह दावा नहीं कर सकते कि उनका पत्र पाया और खटाखट पढ़कर सुना दिया। वैसे नाहटाजी बहुधा यह कृपा करते हैं कि अपने किसी सहायक आदिसे अपने लेखों की. और कभी-कभी पत्रों को भी नकल करवा कर अथवा बोलकर उनसे लिखाकर भेजते हैं। २५६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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