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________________ "भारतकी प्रसिद्ध नदियाँ गंगा-सिन्धुको जैन शास्त्रों में शाश्वत कहा है । इनकी इतनी प्रधानता थी कि सिन्धुके किनारे बसा प्रान्त ही सिन्धु हो गया था । तथा ग्रीक आक्रमणकारियोंने तो पूरे भारतको ही इन नदी नामानुसार पुकारना प्रारम्भ कर दिया था ।" " गणधर सार्द्धशतक ( सं० १२९५ ) तथा बृहद् वृत्ति में उल्लेख है कि 'खरतरगच्छ' के आचार्य वल्लभसूरि कामरुकोट तथा जिनदत्तसूरि उच्च नगर गए थे। इसके बाद इस गच्छके मुनियोंके सिन्ध आवागमनकी धारा अविरल रूपसे बहती रही । " नाहटाजीने इस लेखमें कुछ ऐसे स्थानोंकी तालिका भी दी है जिससे स्पष्ट कि ११वीं शती के मध्य से ही सिन्ध प्रान्त धर्मविहारमें रत जैनाचार्योंका कार्यक्षेत्र हो गया । लेखके अन्त में निष्कर्ष देते हुए उन्होंने निम्न रूपमें एक बड़ी मार्मिक बात कह डाली है " किन्तु भारतीय धर्मोंके लिए समय कैसा घातक होता जा रहा है, कि मुलतान आदि कतिपय स्थानोंके सिवा सिन्ध ( वर्तमान पंजाब, सीमा- प्रान्त तथा सिन्ध) में जैनियोंके दर्शन भी दुर्लभ हो गये हैं और टोरी पार्टी के द्वारा प्रारब्ध भारत-कर्तनने तो इन प्रान्तोंसे समस्त भारतीय धर्मोको ही अर्द्धचन्द्र दे दिया है ।" गर्दन पर धक्का देकर निकाल देनेके अर्थ में 'अर्द्धचन्द्र देना' संस्कृतका एक महावरा है । इस प्रकार नाहाजी ने अपने लेखों में संस्कृत बहुल शब्दावली और मुहावरोंके प्रयोगसे राष्ट्र भाषाको समृद्ध बनाने में भी बड़ा योग दिया है । नाहटाजी किसी सम्प्रदाय - विशेषमें अपनेको केन्द्रित नहीं रखते । उनके लेख सार्वभौमिक उपयोग हैं । 'कल्याण' मासिकके वर्ष ४१ के संख्या ६ के अंकमें 'मानव कर्त्तव्य' एवं वर्ष ४२ के संख्या ३ के अंक में 'अभयकी उपासना' आदि लेख मानवमात्रको कल्याणका मार्ग दर्शन कराते हैं । अभी लगभग एक वर्ष पूर्व ही 'ब्रजभारती' में फाल्गुण सं० २०२७ वि० के अंकमें वयोवृद्ध लेखक श्रद्धेय गौरीशंकरजी द्विवेदीने "सूरतिमिश्र अमरेश कृत अमरचन्द्रिका" शीर्षक एक लेख लिखा था । 'अमरचन्द्रिका' विहारी सतसईकी एक प्रसिद्ध टीका है । इस लेखपर 'ब्रजभारती' के ही भाद्रपद वि० २०२८ में श्रीनाहटाजी ने कुछ संशोधन प्रस्तुत किये थे । टीकाकी प्रतिलिपिकी भिन्नताने ही यह मतभेद उपस्थित किया था । आपने " अमरचन्द्रिका टीका सम्बन्धी कतिपय संशोधन" शीर्षक अपने उक्त लेखमें द्विवेदीजीकी मान्यताओंके विरुद्ध कुछ संशोधन प्रस्तुत किये थे । ये संशोधन उनकी अपनी प्रतिलिपियोंके अनुसार प्रामाणिक हैं । फलतः विनम्रता की प्रतिमूर्ति द्विवेदीजीने सामान्य मत-भेदके साथ आपके संशोधनों को अपने लेखके अन्तमें निम्न वचन द्वारा स्वीकृत कर लिया था "यह अकिंचन लेखक श्रीनाहटाजीका आभारी है कि उन्होंने उचित संशोधन की ओर ध्यान आकर्षित किया ।" उक्त आलोचनात्मक एवं प्रत्यालोचनात्मक लेखोंमें दोनों मनीषियोंकी विनम्रता दर्शनीय है । इन लेखोंसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों विद्वान् लेखक कितने संग्रही भी हैं, जिनके संग्रहालयों में वि० सं० १७९४ में लिखी गई 'अमरचन्द्रिका' टीकाकी हस्तलिखित प्रतिलिपियाँ भी संग्रहीत हैं और एक नहीं दो-दो । 'ब्रजभारती' के ही वर्ष २४ के अंक ३ में नाहटाजीका "नाइक गोविन्द प्रसाद विरचित गोविन्द वल्लभ काव्य" नामक एक अन्य लेख भी मेरे सामने है । यह काव्य-कृति वि० सं० १७५६ के पूर्वकी सिद्ध की गयी है । पृष्ठ संख्या २२ है, अतः स्पष्ट है कि यह एक खण्ड-काव्य होना चाहिए । इस काव्य विषयक एक परिचयात्मक लेखमें भी नाहटाजीने भक्तिके विषयमें अपने मौलिक विचार व्यक्त किये हैं । जैसे : "भक्ति में वास्तव में बड़ी शक्ति है। ज्ञान और योगमार्गकी अपेक्षा वह सरल भी है। ज्ञानका २३८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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