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शोधमनीषी श्रेष्ठिवर श्रीअगरचन्दजी नाहटा
सा० महो० डॉ० श्यामसुन्दर बादल साहित्याचार्य सम्मान्यबन्धु श्री अगरचन्द्रजी नाहटासे हमारा गत कई वर्षसे परिचय है. इधर कुछ वर्षोंसे उनके स्नेहपूर्ण पत्रों द्वारा हमारा उनसे अद्ध मिलन होता ही रहता है. जैसा कि एक लोकोक्तिसे स्पष्ट है
"पत्री आधा मिलन है।" सौभाग्यसे अभी कुछ दिन पूर्व हमें उनके चित्रके भी दर्शन हुए । 'विशाल-भालको दबाये हुए सरलतासे सिरपर बंधा हुआ साफा ( पगड़ी ), चिन्तनशील लोचनोंपर चढ़ा हुआ चश्मा, घनी-धनी मूंछे, सात्त्विक वेश-भूषा से आच्छादित समोनत कलेवर एवं स्मितपूर्ण गम्भीर मुखाकृति ।' इन्हीं कुछ स्थूल रेखाओं द्वारा बन्धुवर नाहटाजीके भौतिक पिण्डका शब्द-चित्रण किया जा सकता है।
विगत चैत्रकृष्ण चतुर्थीको ( वि० २०२८ ) श्री नाहटाजीने वासठवें वर्षमें प्रवेश किया है, पर साहित्यके क्षेत्रमें आपकी गतिशील लेखनी उनपर ‘साठा सो पाठा' की उक्तिको चरितार्थ कर रही है। बन्धवर नाहटाजी मा. श्री और सरस्वतीके समान रूपेण परमाराधक साधक हैं। यद्यपि आप लगभग चालीस वर्षसे एक सफल लेखकके रूपमें निरन्तर राष्ट्र-भाषा हिन्दीकी सेवा करते चले आ रहे हैं, पर इस जनका आपसे परिचय आज पच्चीस वर्ष पूर्व सन् १९४७ ई. में तब हुआ था-जब श्रद्धेय दादाजी (साहित्यवारिधि डा. बनारसीदासजी चतुर्वेदी) द्वारा मुझे 'प्रेमी-अभिनन्दन-ग्रन्थ' उपहृत किया गया था, जिसमें मुझे नाहटाजीका 'जैन साहित्यका भौगोलिक महत्त्व' शीर्षक लेख पढ़नेको मिला था। इसमें प्राचीन जैनआगमोंकी चार विधाओं एवं 'भगवती सूत्र', 'जीवाभिगम' 'प्रज्ञापना' 'जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति' आदि कई मौलिक ग्रन्थोंके उद्धरण देते हुए आपने जो भौगोलिक तथ्य खोज निकाले थे, वे भारतीय इतिहासकारोंके लिए बड़े महत्त्व के है । लेखके अन्तमें इन्होंने जैन-तीर्थ विषयक प्रकाशित ग्रन्थों, विशिष्ट लेखों, जैन प्रतिमा लेख-संग्रह, एवं कलापूर्ण जैन-शिला स्थापत्यकी चित्रावलिकी एक ऐसी सूची भी दे दी है, जिसमें उनके लेखकोंके नाम, प्रकाशन-स्थान, तथा मूल्य भी दिये गये हैं,जिससे आवश्यकतानुसार उन्हें प्राप्त किया जा सके । स्व. वासुदेवशरण अग्रवालने अपने 'भूमिको देवत्व प्रदान' शीर्षक एक लेखमें अथर्ववेदके निम्न वचनों द्वारा भूमिको वन्दनीय माता बतलाया है
"माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः ।"
"ॐ नमो मात्रे पृथिव्य ।" प्रस्तुत लेखमें नाहटाजीने श्री भद्रबाहु रचित आचारांग नियुक्तिका निम्न उद्धरण देकर भूमिके विशिष्ट अंगभूत तीर्थोको नमस्करणीय माना है
"अठ्ठावय उज्जिते गयगग्गपए य धम्मचक्के य ।
पासरहा वत्तणयं चमरूप्पायं च वन्दामि ॥" तदनन्तर सन् १९४९ ई. में प्रकाशित 'वर्णी-अभिनन्दनग्रन्थ' में तो यह जन नाहटाजीके साथ सहलेखकके रूपमें सम्बद्ध हआ था। यह भी श्रद्धेय दादाजीकी कृपाका ही फल था। उक्त ग्रन्थमें संस्मरणात्मक रेखाचित्र विधाका 'मेरे गुरुदेव' शीर्षक मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसे मैंने दादाजीकी प्रेरणा ही से लिखा था । बन्धुवर श्रीखुशालचन्द्रजी जैनने मुझे उस विशालग्रन्थको प्रति भी प्रदान की थी। इस ग्रन्थमें बन्धुवर नाहटाजीने "प्राचीन सिन्ध प्रान्तमें जैनधर्म" शीर्षक लेख लिखा था। इस लेख में सिन्ध प्रान्त एवं उसमें भी केवल 'खरतरगच्छ' को ही आपने अपनी लेखनीका लक्ष्य बनाया है। जैसा कि निम्न उद्धरणोंसे स्पष्ट है :
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २३७
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