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________________ आज भी जब मैं श्री नाहटाजी के दर्शन करती हूँ मुझे उस भेटका स्मरण हो आता है और मैं रहरहकर सोचती हूँ कि श्री नाहटाजी जितने बड़े विद्वान् हैं, उतने ही नम्र और उदारमना व्यक्ति भी । वे मेरे शोध-प्रबन्ध हेतु मेरे गुरू और मार्गदर्शक हैं और जो कुछ कर रही हूँ वह उन्हींकी सहज अनुकम्पाका परिणाम है। उन्होंने मेरा साहस न बढ़ाया होता और डा० भानावतको पत्र न लिखा होता तो मेरा यह कार्य कभी भी पूरा नहीं हो पाता। मैं राजस्थानके इस महनीय सरस्वती-पुत्रकी दीर्घायु हेतु ईश्वरसे मंगल कामना करती हुई यही निवेदन करना चाहूँगी कि वे अपनी ज्ञान राशिसे छात्र-छात्राओंको उद्बोधित करते रहें और सभी अनुसंधित्सुओं से भी साग्रह कहना चाहूँगी कि वे इस ज्योति-पुरुषसे सदा-सर्वदा आलोक लेकर अपने अज्ञानको दूर करते रहें। पागाँ पेचाँदार, वाण्यो बीकानेरको श्री बालकवि बैरागी सन् सम्वत् तो मुझे याद नहीं रहा पर बाकीको मैं भूल नहीं पाया हूँ। उज्जैनमें 'मालव लोक साहित्य परिषद की ओर से मेलेके विशाल मंचपर मालवी कविसम्मेलन था । यह कवि-सम्मेलन हर साल आयोजित होता है और मालवीके नये पुराने कई कविगण इसमें कविता पाठ करते हैं । मेला लगता है क्षिप्राके किनारे और भीड़ उसमें इतनी रहती है कि सामान्यतया आप मान नहीं सकेंगे। मैं कहूँ कि कोई चालीस-पचास हजार नर-नारी इस कवि-सम्मेलनको रातभर सुनते हैं, तो आपको कैसा लगेगा? दूर-दूर देहातोंसे बैलगाड़ियाँ जोत कर कुटुम्ब सहित आये हुए किसान, उनके बच्चे, उनके परिजन आसपास लगे कस्बों और खेड़ोंके अधकचरे पढ़े लिखे नौजवान, माँ बहिनें, बाबूलोग और सरकारी नौकर चाकर तथा नेता-ऐता और न जाने कौन-कौन लोग, साहित्य मर्मज्ञ और आलोचक, सब इस कवि-सम्मेलनमें जटते हैं और मैंने कहा न कि सारी रात सनते है । सूरजकी पहली किरण कब आती है और कार्तिक महीनेका कोई दिन कब गरम हो जाता है, इसका अनुमान उस दिन लग नहीं पाता है। मालवीका मेह कभी रिमझिम तो कभी धाड मार बरसता रहता है, कवियों और जनताके बीच कोई औपचारिकताकी दीवाल नहीं रह पाती है। तब लगता है कि भाषाकी अपनी भी एक अनौपचारिकता होती है । भाषा वस्तुतः दूरी और निकटताके लिए बहुत बड़ा नहीं, सबसे बड़ा तत्त्व है यह सिद्ध होता है। ऐसे कवि-सम्मेलनका अध्यक्ष कौन हो इसकी तलाश मालवी परिवारके लोग हरसाल करते हैं। पूरे साल यह खोज हम मालवीके कवि लोग सारे देशमें घूमते-फिरते करते रहते हैं और अपने-अपने प्रस्तावोंपर विचार करते हैं। अपनी-अपनी पसन्दके व्यक्तियोंके लिए लड़ते हैं, जिद करते हैं और जो व्यक्ति तय होता है उसको पूरा सम्मान देकर उसके चरणोंमें बैठकर कविता पाठ करते हैं । नई, पुरानी, कच्ची, पक्की, फूहड़, अधकचरी, परिपक्व, श्रेष्ठ और सब तरहकी रचनाएँ पूरी मस्तीसे पढ़ते हैं। यह कवि-सम्मेलन वर्ष भर मालवीके लिए दिशा-निर्देश करता है। कवि सोचते हैं कि वे किधर जा रहे हैं और समाजके साथ उनकी संगत कैसी है। बरसों पहिले इसी कवि-सम्मेलनके लिए मालवीके मनीषी दादा श्री चिन्तामणि उपाध्यायने हम सब कवियोंको नोटिस दी कि 'इस बार तुम किसी अध्यक्षकी तलाश नहीं करोगे।' दादाका हुकुम। सब चुप हो गये। व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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