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कई पुस्तकें खड़े-खड़े ही माँगने लगे । मुझे यह पहिचानते देर न लगी कि वे ही श्री अगरचन्दजी नाहटा हैं । श्री नाहटाजी के निकट से दर्शन करनेका वह मेरा प्रथम अवसर था ।
मैंने श्री नाहटाजीसे बैठनेका निवेदन किया और जो पुस्तकें उन्होंने चाहीं, उनके समक्ष प्रस्तुत कर दीं। पर्याप्त समय तक श्री नाहटाजी वे पुस्तके देखते मात्र ही नहीं रहे, अपितु उनमें से कई सन्दर्भों को उन्होंने अपनी जेब से कागज और पेन निकालकर लिख भी लिया । मुझे लगा कि प्रत्येक व्यक्ति इसी तत्परतासे ज्ञानार्जन करे तो उसके पास अक्षय ज्ञान भण्डार सहज रूपसे संचित हो सकता है । श्री नाहटाजी उस दिन चले गये और मैं उनके सम्मुख अपने विषयके सम्बन्धमें कुछ भी निवेदन न कर पाई। परीक्षा हेतु मुझे उनके यहाँसे जो जानकारी और सामग्री चाहिये थी, मैं समय-समयपर अवश्य मँगाती रही। अभी तक मेरा संकोच दूर नहीं हुआ था ।
एम० ए० परीक्षा उत्तीर्ण करनेके पश्चात् जब मैं 'राजस्थानी लोक महाभारत' पर शोधप्रबन्ध हेतु प्रारूप बना रही थी, उस समय मुझे श्री नाहटाजीके मार्गदर्शनकी अत्यन्त आवश्यकता थी । मैंने बीकानेर के विद्वानोंसे अपने विषयके सम्बन्धमें जब भी चर्चा की, प्रत्येकने एक स्वरसे श्री नाहटाजीका नाम बताया । अब सिवाय सम्पर्क साधने के अन्य कोई मार्ग रह ही नहीं गया था। मैं साहस बटोर कर श्री नाहटजी के यहाँ पहुँची ।
श्री नाहटाजी अपने निजी अभय जैन ग्रन्थालय में शताधिक पुस्तकोंके मध्य बनियान पहने हुए एक दिव्य साधककी भाँति बैठे पत्र-पत्रिकाओंका अध्ययन कर रहे थे । प्रवेश द्वारकी ओर उनका मुख था, सामने सत्तर-अस्सी पत्र-पत्रिकाएँ बिखरी पड़ी थीं और वे अपने हाथमें नागरी प्रचारिणी पत्रिकाका अंक लिये हुए उसका अध्ययन कर रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने पत्रिकाको उल्टा रख दिया और बड़े ही वात्सल्य भावसे बैठने को कहा ।
श्री नाहटाजीकी स्नेह सिक्त वाणीमें मुझे पितृ तुल्य वात्सल्यकी झलक मिली और व्यवहार में अत्यधिक नम्रता, सम्भवतः जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी । मेरे मनमें विचार आया क्यों न मैं यहाँ पहले आ गई ? जब मैंने श्री नाहटाजी के समक्ष शोधप्रबन्धके प्रारूपकी समस्त कठिनाइयोंके सम्बन्धमें निवेदन किया तो वे एक गुरुकी भाँति मेरे साहसको बढ़ाते हुए बोले, "इसमें कठिनाईकी क्या बात है ? लो मैं तुम्हें अभी लिखाता हूँ, लिखो ।" मैंने उनके निर्देशन के अनुसार समस्त प्रारूप थोड़ी सी देरमें ही लिख लिया और जहाँ मेरे लिखनेमें त्रुटि रही, वहाँ-वहाँ भी उन्होंने संशोधन करवा दिया ।
जब मैंने पूरा प्रारूप तैयार कर लिया तो मेरे समक्ष निर्देशकका प्रश्न उत्पन्न हुआ । सौभाग्यसे उन्होंने पूछ ही लिया कि तुम्हारा निर्देशक कौन है ? यदि कोई तुम्हारा निर्देशक निश्चित न हुआ हो तो मैं डॉ० भानावतको पत्र लिख देता हूँ । मुझे अँधेरेमें भटकती हुई को जैसे प्रकाश मिल गया हो, ऐसा अनुभव हुआ । मैंने तो मात्र इतना ही कहा कि आपकी बहुत कृपा होगी। उत्तरमें उन्होंने कहा, “तुम चिन्ता न करना । किसी भी प्रकारकी कठिनाई हो तो पूछने के लिए किसी भी समय आ जाना और इस पुस्तकालयको अपना ही समझकर इसका उपयोग करना । तुम न आ सको तो किसीको भी भेज देना, मैं समस्त उपयोगी सामग्री भिजवा दूंगा ।"
इस भेंटके उपरान्त श्री नाहटाजी ने मुझे अनेक बार गुरुवत् ज्ञान दिया तो पथ प्रदर्शककी तरह अनेक बार मार्गदर्शन भी । जब-जब मुझे कठिनाई हुई, उन्होंने मेरी प्रत्येक समस्याको वात्सल्य भावसे सुलझाया और वांछित ग्रन्थोंको सदैव उपलब्ध किया ।
वस्तुतः आज राजस्थानके इस मनीषीके सदृश कितने ऐसे विद्वान् हैं, जो इस प्रकार सौजन्य और उदारता के साथ मार्गदर्शन देते हैं । सम्भवतः इसी प्रकारकी सहायताके फलस्वरूप आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीने श्री नाहटाजी को 'औढरदानी' के नामसे सम्बोधित किया है ।
२२८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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