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जिस समय मैं आपके यहाँ पहुँची, आप भोजन कर रहे थे। आते ही आपने रहने आदिकी व्यवस्था के बारे में पूछा और सन्तुष्ट हो जानेपर ही विषयसे सम्बन्धित बात की । जब मैंने कुछ हस्तलिखित ग्रन्थ देखनेको जिज्ञासा प्रकट की तो आप उसी समय, जब कि दोपहरके ठीक साढ़े बारह बजे थे, मेरे साथ पुस्तकालय गये और ग्रन्थोंके नाम, ग्रन्थांक बिना रजिस्टरकी सहायता के मुझे नोट करवा दिये। मैं आपकी स्मरण शक्ति देखकर दंग रह गयी। साथ हो मुझे लगा कि आप तो विश्वके महान् कोष स्वयं ही हैं । फिर सूची पत्र की आवश्यकता आपको क्या हो सकती है ।
श्री अभय जैन ग्रन्थालयमें जो आपका निजी पुस्तकालय है मेरे विषयसे सम्बन्धित अधिकांश सामग्री मुझे | आपके भण्डारके अतिरिक्त जो सामग्री जहाँ मिल सकती थी, उसके बारेमें भी केवल बताया ही नहीं, प्राप्त करनेमें भी पूर्ण सहयोग दिया । वे भण्डार ट्रस्ट्रीजके आधीन हैं और इन्हें खुलवाना बड़ा मुश्किल है परन्तु श्रद्धेय नाहटाजीने इन सभी परेशानियों के बावजूद भण्डार खुलवाये तथा जो ग्रन्थ भण्डार के बाहर नहीं दिये जा सकते हैं, अपनी जिम्मेदारीपर मुझे दिलवाये। जिन ग्रन्थोंकी मैं काफी समय से प्रतीक्षा कर रही थी वे मुझे इस प्रकार सुलभ हुए । सहयोगकी यह भावना उनकी साहित्य के प्रति रुचि तो प्रदर्शित करती ही है, साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि श्री नाहटाजी शोधछात्रोंकी परेशानियोंसे विज्ञ हैं। और सहयोग देते रहते हैं । ऐसा महान् विद्वान् दुनियामें बिरला ही कोई होता है ।
जो विद्यार्थी राजस्थानी साहित्यकी गहन बौद्धिकतामें न जाकर राजस्थानी साहित्यके अमूल्य अप्राप्य मोतियों को कूलसे ही प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिये नाहटाजीके लेखोंसे बढ़कर अन्य कोई श्रेष्ठ माध्यम नहीं है । श्री नाहटाजी अपने विविध और विशाल अनुभव तथा विपुल अध्ययन एवं चिन्तनको समग्र मानसिक ताजगी और सजग दृष्टि के साथ राजस्थानी साहित्यको अर्पित कर रहे हैं। ईश्वर करे व शतायु होकर निरन्तर सेवा करते रहें ।
ज्ञान- प्रदीप श्री नाहटाजी सुशीला गुप्ता
मान्य विद्वानोंके मुखसे श्री अगरचन्दजी नाहटाके सम्बन्धमें मैंने बहुत कुछ सुन रखा था। एम० ए० में 'हिन्दी साहित्य' विशेष डिंगल विषय होनेके कारण मुझे व्यक्तिशः श्री नाहटाजीसे सम्पर्क साधने की बात अनेक विद्वानोंने कही । समय-समयपर मैंने उनके लेख और विभिन्न शोधप्रबन्धों में उनके विद्वत्तापूर्ण विचारोंका पठन किया था । मैं मन ही मन हिचक रही थी कि इस प्रकारके सुप्रतिष्ठित विद्वान्से, जिनके पास सैकड़ों शोध छात्र मार्गदर्शन हेतु प्रतिवर्ष आते हैं, मैं बिना कुछ सम्पर्क के कैसे बात करूँगी ?
एक लम्बे समय तक इसी उधेड़-बुनमें रही कि एक दिन भारतीय विद्यामन्दिर शोधप्रतिष्ठानमें श्री नाजीका पधारना हुआ। जहाँतक मुझे स्मरण है, उन दिनों प्रतिष्ठानके द्वारा श्री नाहटाजीकी पुस्तक 'प्राचीन काव्योंकी रूप परम्परा' का प्रकाशन हो रहा था और वे इस ग्रन्थमें नवीन जानकारी सम्मिलित करने हेतु आये थे । उस दिन संस्थाके भूतपूर्व संचालक श्री अक्षयचन्द्रजी शर्मा और वे सीधे ही पुस्तकालय में आकर
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २२७
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