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________________ मैंने साहस करके पूछ ही लिया कि 'हमारा यह अधिकार हमसे इस बार छीना क्यों जा रहा है । हम लोग कवि-सम्मेलनोंमें साल भर घूमकर एक यही काम तो मनसे मालवी के लिए करते हैं कि हमारा आशीर्वाददाता विद्वान् हमको ठीक-ठीक मिल सके ।' दादाने पूरे आत्म-विश्वाससे कहा कि 'इस बार अध्यक्ष मैंने तय कर लिया है और चाहे जो हो वही व्यक्ति आयेगा ।' फिर उनसे पूछा 'दादा ! आखिर उस तोप का नाम तो बताओ जो इस बार अभीसे हमारी छातीपर तन गई है, ऐसी कौनसी आकाशगंगाका बेटा आपने बुलानेका सोचा है' । दादा मुस्कराये और मालवी के एक लोकगीतकी एक पंक्ति उत्तर में कह गये 'पागाँ पेचदार, वाण्यो बीकानेर को' । हम कविगण बैठे चाय-चुस्की कर रहे थे । दादाने हमारी जिज्ञासाको समझकर कहा 'यह तय किया है कि श्री अगरचन्द नाहटा इस बार हमारे अध्यक्ष होंगे, और यह इच्छा तो मेरी है ही पर इस नाम का सुझाव मालवी आदि पुरुष पं० सूर्यनारायणजी व्यासकी तरफसे आया है और अब तुम सबको यह नाम स्वीकार करना ही होगा' । हम सब लोग सिटपिटा गये चुप हो गये, सूर्यनारायणजी व्यास और चिन्तामणिजी उपाध्याय जहाँ बीच में आ जायें मालवीके कलमगर हर बात सिर झुककर स्वीकार कर लेते हैं । अपनी अच्छी से अच्छी कविताओंको इन महानुभावके कहनेसे फाड़कर फेंकने में भी हम लोग गौरवका अनुभव करते हैं । बस तबसे हम लोग अगरचन्दजी नाहटाके लिए प्रतीक्षातुर हो गये । नाम तो सुना हुआ था । यदा-कदा कई एक लेख पढ़-पढ़ा भी लिए थे परन्तु नाहटाजी को देखा नहीं था । न फोटो, न फ्रेम, उनके बारे में यहाँ-वहाँ पूछताछ करते रहे । कोई कहता था कि भयंकर पगड़ी धारी एक सेठ है । कोई कहता था कि मूँछोंपर बल देना उनकी आदत है । कोई कहता था कि इतने पढ़े लिखे हैं और कोई कहता था कि उनका पढ़ाई-लिखाईसे कोई रिश्ता ही नहीं है । किसीने लोकसाहित्यका उनको दिवाकर बताया तो किसीने यह फतवा दिया कि नाहटाजी भीषण रूपसे जैनी हैं । सिवाय जैनके वे कुछ नहीं हैं, उनकी हर अदासे जैनीपनकी गंध आती है, वर्णन सुनते रहे और उनके बारेमें हम लोग अनुमान लगाते रहे । मेलेका दिन आया, नाहटाजी उज्जैन पधारे। मैं किसी दूसरे कविसम्मेलनसे घूमता फिरता उज्जैन आने वाला था । दूसरे कविगणभी अपने-अपने कार्यक्रम निपटाकर आनेवाले थे । इस सम्मेलनसे हमारा अपनापन और घरोपा इतना है कि कोई कवि रातको चार बजे भी मंचपर पहुँचा तो भी चलेगा, पारिश्रमिक की किसीकी कोई जिद नहीं होती, जो जब भी आता है पूरी मस्ती से आता है । आठ बजे से आयोजन शुरू हो गया। मैं कोई दस बजे मंचपर पहुँचा था । देखा टखनोंसे ऊपर तक चढ़ी हुई धोती लम्बा बन्द गलेका भूरा कोट, आँटे और पेचों वाली मोटी पगड़ी, गहरी खिंची हुई तनी मूँछे, चश्मा और पूरा रौबीला बड़ासा मुँह माथा लिए एक आदमी अपने सेठों जैसे साहूकारी अन्दाजमें गादी पर रखे हुए लोटके ऊपर बैठा हुआ है । लोट चपटा होकर दब गया था । शरीरका वजन भी तो पड़ रहा था न । चुप चाप दादासे पूछा 'क्या यही आपका बीकानेरी बनिया है' । दादा मुस्कराये और बोले 'हाँ' । मैंने पूछा 'अध्यक्षीय भाषण हो गया क्या' । वे चिढ़े, बोले 'जब समयपर नहीं आया है तो कार्यबाहीपर पूछने का कोई अधिकार तेरा नहीं है । जब अपना नम्बर आये तब कविता पढ़ देना । समझ लेना कि आजका अध्यक्ष सारी कविताको पानी पिला देगा' । नाहटाजी के व्यक्तित्वका आतंक तो मुझपर पड़ ही चुका था । दादा उनकी मेधाका सिक्काभी मुझ पर बैठा दिया। कवि सम्मेलनमें कविता पाठ शुरू हो चुका था । जनतामें रसकी हिलोंरे बराबर उठ रहीं थीं। मैंने गोरसे और गहराईसे देखा तथा पाया कि अध्यक्ष महोदय पर किसी कविता का कोई असर नहीं है । और वे किसी भी कवितापर कोई प्रतिक्रिया या दाद व्यक्त नहीं कर रहे हैं । लगा कि कैसे अरसिक आदमी से पाला पड़ा है । कोई बारह बजे तक मालवीके वे सब कविता पढ़ गये जो कि प्रति वर्ष नये-नये लिखना शुरू करते हैं - अपनी प्रारंभिक रचनाएँ । हमलोग इसको प्रोत्साहनका दौर कहते हैं । २३० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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