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________________ हिन्दीमें एक लोकोक्ति हैं 'बालकके पाँव पालने में ही देखे जाते हैं।' तदनुसार श्री नाहटाजी किशोरावस्थासे ही सत्संग लाभकर जैनधर्मका ज्ञानार्जन करते रहे और अपने पिता तथा निवृवती ज्ञानभंडारोंमें शोधात्मक वृत्तिसे लिपि व भाषाका ज्ञान बढ़ाने लगे । आपके वंशमें परम्परागत व्यापारिक व्यवसाय होते हुए आपकी अभिरुचि साहित्य और कलामें रम गई, जिसके फलस्वरूप नाहटाजी निजी प्रयासोंसे ही दो ऐसे संस्थानोंको जन्म दे सके, जो राजस्थानमें महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किये हुए है। ज्येष्ठ भाई श्री अभयराज नाहटाके असामयिक देहावसानपर आपने अभय ग्रन्थालय स्थापित किया, जिसमें राजस्थानी एवं अन्य भाषाओंकी विविध विषयक लगभग ८० हजार पुस्तकें हैं । एवं अपने पूज्य पिता श्रीशंकरदान नाहटाकी पुण्य स्मृतिमें उनके नामसे शंकरदान नाहटा कलाभवन स्थापित किया, जिसमें असंख्य अनुपम कला-कृतियाँ उपलब्ध हैं। पी-एच० डी० के लिये शोध आरम्भ करनेपर विशेष रूपसे मुझे श्री नाहटाजीके निकट सम्पर्कमें आनेका अवसर मिला । मेरा शोध विषय था राजस्थानी लोकगीत और श्री नाहटाजी राजस्थानी साहित्यके धनी ठहरे।। अतः मार्गदर्शक श्रद्धेय श्री नरोत्तमदास स्वामीने सर्व प्रथम मुझे आपका नाम बताया। मैं नाहटाजीके साहित्य प्रेम एवं विद्वत्ताके विषयमें पहलेसे ही बहुत कुछ सुन चुकी थी। कई बार समय समयपर होनेवाली गोष्ठियों तथा सभाओंमें आपके दर्शन करने एवं प्रवचन सुननेका भी सौभाग्य प्राप्त हो चुका था। किन्तु सन् १९५२ में आपके व्यक्तित्वकी जो छाप मेरे मस्तिष्कपर पड़ी, वह चिर स्मरणीय है। अपने ग्रन्थागारमें मूर्तिमान सरस्वती पुत्रकी भाँति विराजमान नाहटाजीका वरद हस्त मेरे शोधकार्यके लिये प्राप्त होते ही मानों मुझे महान् सम्बल मिल गया। आपने अत्यन्त स्नेहपूर्वक मुझे सब प्रकारकी सहायता देना स्वीकार किया । ग्रन्थालयमें ऊपर-नीचे आगे-पीछे चारों ओर पुस्तकोंके अम्बार लगे थे-मेरे विषयसे संबंधित अनेकों पुस्तकें व पत्र-पत्रिकाएँ वह स्वयं खोजकर निकाल-निकालकर देते रहे। मैं देखकर स्तम्भित रह गई-इस अथाह साहित्य पयोधिमें कहाँ क्या-क्या होगा इसकी जानकारी उनके स्मृति पथमें भली प्रकार बनी हुई थी-यह था उनके गम्भीर एवं व्यापक ज्ञानका परिमाण । आज परीक्षाओंके बोझसे बोझिल नई पीढीका मानस निर्धारित पाठ्य क्रमके सीमित ज्ञानको भी भली प्रकार हृदयंगम नहीं कर पाता-जब कि जन्म जात कला प्रेमी मानसमें उस अनन्त ज्ञानकी चेतना पूर्ण रूपेण स्मृति पथमें जागृत है। साहित्यमें पढ़ा था- “कवि मनीषी परिभू स्वयंभू" ऐसे उस कवि रूपको साक्षात् नाहटाजीके व्यक्तित्वमें पाकर मैं कृतकृत्य हो गई। उनके सान्निध्यमें शोध कार्यको अग्रसर करना एक आनन्ददायी विषय था। समय-समयपर उनसे पुस्तकें लाने तथा उनके व्यक्तिगत ज्ञानसे लाभान्वित होने हेतु उनके पास जाना बना रहा, सम्पर्क बढ़ता गया। साहित्यिक जगत्में बीकानेरमें होनेवाली संगोष्ठियोंमें भी नाहटाजीके विचारोंको सुननेसे उनके अध्ययन एवं ज्ञानका और भी व्यापक रूप प्रकट होता रहा-मुझे स्मरण है एकबार सादुल इन्स्टीच्यूटके तत्वावधानमें होनेवाली संगोष्ठी में उन्होंने पत्र पढ़ा था, जिससे लोककथा संबन्धी गम्भीर तथ्योंका उद्घाटन हुआ। राजस्थानी भाषा संबंधी हो या साहित्य सम्बन्धी, जैन धर्म सम्मेलन हो या गीता जयन्ती समारोह, दर्शनका कोई भी विषय हो अथवा साहित्य एवं कला सम्बन्धी नाहटाजी प्रत्येक विषयपर अधिकार पूर्वक बोलते हैं और लिखते हैं । आपकी चतुमखी प्रतिभाको साधना द्वारा विकसित करके नाहटाजीसे अल्प कालमें साहित्य और कलाके क्षेत्रमें इतनी उपलब्धियाँ कर सके। आपके व्यक्तित्वका आदर्श इस सत्यका ज्वलन्त प्रमाण है कि मानवमें प्रकृति जन्य अनन्त शक्ति और क्षमता है, शिक्षाके द्वारा इस शक्ति एवं क्षमताका विकास करके उद्घाटन मात्र किया जा सकता है । श्री नाहटाजीके जीवनको अनुपम उपलब्धियाँ छात्र-छात्राओं एवं प्रौढ़ नवयुवकोंके लिये प्रेरणाका व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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