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नाहटाजी : एक जीवन्त संग्रहालय श्री जमनालाल जैन
अगरचन्दजी नाहटा ! यह एक ऐसा नाम है, जिसके बारेमें 'साहित्य जगत्' में प्रविष्ट मामूली- सा आदमी या नया-नया आदमी भी अपरिचित नहीं रह सकता, न रह सकेगा । ऐसी कोई पत्रिका नहीं, जिसमें नाहटाजी न लिखते हों ।
लेखक प्रायः लावरवाह होते हैं। भूलना वे अपनी विशेषता समझते हैं । खोये-खोये रहने में वे अपनी प्रतिष्ठा मानते हैं । हिसाब किताब रखनेको वे बेकारका झंझट समझते हैं । मस्ती में जीना, नशे जैसी हालत न रखना, अधिक जागरण करना साहित्यकारके आरोपित गुण समझे जाते हैं। मतलब यह कि विचार और आचारपर किसी भी तरहका बंधन साहित्यकारको बोझ मालूम देता है और वह स्वयं इसे दकियानूसी - पन समझता है ।
लेकिन अगरचन्दजी नाहटा इन सब बातों में भिन्न हैं । वे धार्मिक प्रकृतिके, सत्यनिष्ठ, हिसाब-किताब में पक्के, निर्व्यसनी और परिश्रमी व्यक्ति हैं । साहित्यकी सेवा करनेवाला ऐसा आदमी हो भी सकता है, यह शंका हर एकके मनमें उठती है और सचमुच इसमें दोष देखनेवालेका नहीं, नाहटाजीके व्यक्तित्वका ही ज्यादा है।
ऊँचा पूरा 'डील-डौल, मूछोंसे भरा चेहरा, श्याम वर्ण, सिरपर रंगीन ऊँची पगड़ी, लम्बा कोटपूरी मारवाड़ी और सेठिया - पोशाक धारण करनेवाला कोई व्यक्ति भला कैसे साहित्य-साधक माना जाय ? आचार्य कुंदकुंदने कहा है, 'जो कर्ममें शूर होता है, वह धर्ममें शूर होता है ।' नाहटाजीपर यह कथन पूरी तरह लागू होता है । लेकिन उनपर यह उक्ति भी पूरी तरह लागू होती है कि जो हिसाबमें पक्का, वह जीवन में भी पक्का ।' नाहटाजी व्यवसाय में पक्के हैं, हिसाब में पक्के हैं । जहाँ कार्डसे काम चलता है, वहाँ लिफाफा कभी नहीं खचेंगे। उनके हिसाबमें पक्के होने का असर साहित्यपर भी पड़ा है । गजबकी खाता- रोकड़ है, उनके पास साहित्य की । किस चरित्रको, कितने लेखकोंने, कितनी भाषाओंमें, कब-कब लिखा है, इसका पूरा विवरण उनके साहित्यिक बहीखातेमें मिल जायगा ।
उनके घरपर जो संग्रहालय है, जो दर्शनीय सामग्री है, वह उन्होंने कितनी तपस्या, लगन, मेहनत से इकट्ठा की है, यह देखकर ही अंदाज लगाया जा सकता है ।
नाहटाजी एक व्यक्ति नहीं, एक व्यक्तित्व नहीं, पूरे एक संस्था हैं और उनके कामका अगर लेखाजोखा किया जाय तो पता चलेगा कि जो काम उन्होंने स्वयं अपने अकेलेके बलपर किया है, वह बोसों बरस में पचीसों विद्वान तथा लाखों रुपयोंकी सहायतासे भी नहीं हो सकता था ।
वे स्कूलमें बहुत कम पढ़े हैं । यह बात वे स्वयं कहते हैं ! दर्जा ६ तककी पढ़ाई हुई उनकी । लेकिन ये दर्जे शुरू कबसे हुए ? क्या कबीर किसी स्कूलमें गये थे ? स्कूल-कालेजकी पढ़ाई तो वे करते हैं, जिन्हें करनी है, बाबू बनना है । नाहटाजीकी पढ़ाई ऐसे स्कूलमें हुई, जहाँसे निकलकर आदमी आत्माको पहचानने लगता है ।
एक कवि हो गये हैं बनारसीदास । चार शतक पहलेकी बात है । वणिक् कुलमें पैदा हुए और रुचि बढ़ी पढ़ने में । बापने उपदेश दिया, "बहुत पढ़ाई ब्राह्मणभाट करते हैं, अपना काम तो वाणिज्य करना है ।" किया भी उसने वाणिज्य पर आखिर असफल हो गया । छोड़कर लग गया साहित्यकी उपासना में । लेकिन नाहटाजीने व्यवसाय नहीं छोड़ा और साहित्यकी सेवा भी करते रहे । उन्होंने सिद्ध कर दिया कि लक्ष्मीका २१८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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