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बहुमुखी प्रतिभा के धनी : नाहटाजी
श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री
महान् साहित्यकार श्री अगरचन्दजी नाहटाका व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यधिक गरिमामय रहा है । बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और वे विचारोंकी दृष्टिसे हिमालयसे भी अधिक ऊँचे हैं और सागरसे भी अधिक गंभीर हैं । वे विचारक हैं, चिन्तक हैं, लेखक हैं, समालोचक हैं, संशोधक हैं । इतिहास और पुरातत्त्व उनका प्रिय विषय है, उन्होंने अनेकों अज्ञात लेखक कवियोंकी कृतियोंकी खोज की हैं । जहाँ भी कुछ भी प्राप्त हुआ उसे प्राप्त करनेका प्रयास किया है। जैन लेखकों व कवियों पर ही नहीं, वैदिक परम्पराके लेखकों व कवियोंपर भी उन्होंने अच्छी तरहसे लिखा है । सम्प्रदायवादके चिन्तनसे मुक्त होकर तटस्थ दृष्टि चिन्तन करना उनका स्वभाव रहा है । परन्तु नाहटाजी इस बात के अपवाद रहे हैं । आश्चर्य तो इस बात पर है कि ऐसा कोई विषय नहीं, जिसपर उन्होंने नहीं लिखा हो । भारतकी ऐसी कोई जैन- अजैन पत्रिका नहीं, जिसमें उनके लेख न छपे । तीन हजारसे भी अधिक निबन्ध लिखना कोई साधारण बात नहीं है, पर परिताप है कि उनके निबन्धोंके संग्रह आजतक प्रकाशित नहीं हो सके हैं। उनके कितने ही निबन्ध इतने महत्वपूर्ण व शोधप्रधान हैं कि विज्ञ पढ़कर झूमने लगते हैं । आवश्यकता है कि उनके निबन्धोंका विषय की दृष्टि से वर्गीकरण कर पृथक्-पृथक् जिल्दोंमें प्रकाशन करवाया जाए, जिससे वे सभी के लिये उपयोगी हो सकें।
नाहाजी से सर्वप्रथम मेरा परिचय सन् १९५५ में जयपुर में हुआ था, उस समय मैं 'जिनवाणी' पत्रिकाका सम्पादन करता था । उसके पश्चात् १९६२ में वे मुझे जोधपुरमें मिले थे, जहाँपर मैं पूज्य गुरुदेव राजस्थान केशरी प्रसिद्ध वक्ता पं० प्रवर श्री पुष्कर मुनिजीके नेतृत्वमें श्री अमरजैन ज्ञान भण्डारका सूचीपत्र तैयार कर रहा था । नाहटाजीने हस्तलिखित ग्रन्थोंका सूचीपत्र देखकर प्रसन्नता व्यक्त की । उस समय मैंने अपनी सम्पादित 'जिन्दगी की मुस्कान', 'साधनाका राजमार्ग, आदि पुस्तकें उन्हें भेंट की । जैन इतिहास के सम्बन्धमें चर्चा चलनेपर उन्होंने लोकाशाह आदिके सम्बन्धमें अनेक बातें बतलाईं और कहा कि आप जिन ग्रन्थोंका उपयोग करना चाहें मेरे संग्रहालयसे सहर्ष मँगा सकते हैं ।
आचार्य भद्रबाहु रचित कल्पसूत्रका मैंने सम्पादन किया और वह सन् १९६८ में 'श्री अमर जैन आगम शोध संस्थान गढ़सिवानासे प्रकाशित हुआ । ग्रंथ अभिप्रायार्थ नाहटाजीको भेजा गया । नाहटाजीने ग्रंथको देखकर हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त की । उन्होंने भावनगरसे प्रकाशित 'जैन' पत्रके पर्युषण विशेषाङ्क में fear कि आजतक प्रकाशित और सम्पादित कल्पसूत्र में यह कल्पसूत्र सर्वश्रेष्ठ है । उन्होंने मुझे अनेक संशोधन भी भेजे, जिसका उपयोग अभी प्रकाशित हुए कल्पसूत्र के गुजराती संस्करण में मैंने किया है ।
'भगवान् पार्श्व]: एक समीक्षात्मक अध्ययन', 'साहित्य और संस्कृति', 'ऋषभदेव : एक परिशीलन', ग्रन्थोंपर भी उन्होंने अपने सुझाव दिये। ,जिनको देखकर मुझे अनुभव हुआ है कि नाहटाजीका कितना गंभीर अध्ययन है । साथ ही उनमें कितनी सरलता व स्नेह है । उन्होंने समय-समयपर अनुपलब्ध ग्रन्थ मुझे उपयोग करनेके लिए भी भेजे हैं ।
'भगवान् अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण : एक अनुशीलन' ग्रन्थ मैंने लिखा । नाहटाजीने उसकी पाण्डुलिपि देखकर अनेक स्थलोंपर संशोधनके लिए सूचना दी। साथ ही उसपर उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका भी लिख दी । वह ग्रन्थ 'श्रीतारक गुरु जैन ग्रन्थालय पदराड़ा, जि० उदयपुरसे प्रकाशित हुआ ।
२१२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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