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मुझ विदित है कि आप बिना दिखावेके ठोस साहित्य सेवा करनेके व्रती हैं और आपने अपनी अंत - रात्माकी लगनसे प्राचीन साहित्य शोध संबंधी प्रचुर सामग्रीका संग्रह किया है । ईश्वर करें यह सब सामग्री सुरक्षित रूपमें एक संस्थामें रक्खी जा सके जो भविष्य में साहित्य शोधके कार्यको और आगे बढ़ावे ।
( नई दिल्ली, १२-१०-४९ )
[५]
आपका लेख 'कवि- समय - सुन्दर' पर मैंने अभी विशेष रीतिसे पढ़ा। इसमें आपने बहुत परिश्रम और खोजसे समय सुन्दरके विषयको जानकारीका संग्रह किया है । मध्यकालीन हिंदी साहित्यके सोलहवीं शती के इतिहासके लिए इस प्रकारकी सूचनाएँ किसी दिन अनमोल समझी जायँगी ।
( नई दिल्ली, ३-१२-४९ )
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६ ]
चौपाई, बत्तीसी, छत्तीसी, बावनी, अष्टक, स्तवन, सज्झाय आदि-आदि साहित्य रचनाके जो अनेक प्रकार जैन कवियोंने अपनाए उनपर विस्तृत लेख कभी अवश्य होना चाहिए। आप कृपया इस संबंध की सामग्रीका संकलन करते रहें और कभी पत्रिकाके लिए लिखें ।
( नई दिल्ली, ३-१२-४९ )
७ ]
आपने जैन-साहित्य के अवलोकनके लिए जो प्रेरणा मुझे दी है, उसके लिए बहुत अनुग्रह मानता हूँ । मैं अवकाश मिलते ही इस साहित्यका पारायण करूँगा । आगम साहित्य तो मुझे बहुत ही प्रिय है । मैं भी समझता हूँ कि उससे परिचित हुए बिना संस्कृतिविषयक मेरा ज्ञान अधूरा रहेगा ।
( काशी विश्वविद्यालय, ९-९-५२ )
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मेरी दीर्घसूत्रताने आपका धैर्यबांध भी क्षुभित कर दिया । मुझे सचमुच लज्जा आती है क्योंकि मैं अपने आपको इससे अधिक उद्यमी नहीं बना पाता ।
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‘साल्व जनपद' लेख मैंने अधिक प्रचारकी दृष्टिसे सरल भावसे दोनों पत्रोंको भेज दिया था । 'राजस्थान भारती' और 'अवंतिका' के पाठक बिल्कुल अलग हैं। मैंने इसमें त्रुटि नहीं मानी। पर आप ठीक न समझें तो आगे ध्यान करूंगा । कभी-कभी लेखोंके तगादोंसे आकुल होकर भी एक लेख कई जगह देकर जान बचाता रहा हूँ । आपके जैसे लेख सिद्धि की स्पृहा करता हूँ ।
( काशी विश्वविद्यालय, १६ - १२-५२ )
९ } आपका १३-९-५३ का पत्र मुझे पूना - बड़ौदा यात्रा से लौटनेपर मिला । आपके स्नेहयुक्त प्रसन्न मानोभावसे मैं गद्गद् हो गया हूँ। यह आपकी सहिष्णुता उदारता है जो आपने क्षमापनपर्व के अवसर मुझे लिखा है । वस्तुतः इस पुण्यपर्व के उपलक्ष्यमें आपसे क्षमापन चाहता हूँ कि मेरे दीर्घसूत्री स्वभावके कारण आपको असुविधा रही है ।
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( काशी विश्वविद्यालय, २५-९-५३ )
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २०९
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