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अपनी साहित्य साधना बाल्यकाल से ही आरंभ कर दी थी और यही कारण है कि वे इतनी अधिक मात्रामें लेखन, शोध और संग्रह कर पाये।
श्री अगरचन्दजी नाहटाके लेख प्रधानतया शोधात्मक ही होते हैं, इस कारण उनका साहित्यिक महत्त्व अत्यधिक है । नाहटाजीने स्वयं बड़ा विशाल संग्रह किया है परन्तु इसके साथ ही उन्होंने समस्त राजस्थानी-संग्रहको खूब छाना है। उनके लेखों से साहित्यकी नई कृतियाँ उभरकर आई हैं, बहुत सी गुत्थियाँ सुलझी हैं और अनेक नई स्थापनाएँ हुई हैं । अनेक कवियों, लेखकोंके जीवन-वृत्तों के सम्बन्ध में साहित्यिक जगत्में अनेक भ्रान्तियाँ प्रचलित थीं, जिन्हें नाहटाजीने अकाट्य प्रमाणोंके माध्यमसे निवृत्त किया है। नाहटाजीने अनेक हस्तलिखित प्रतियोंकी ओर अनुसन्धित्सुओंका ध्यान आकर्षित किया है, जिनके अभावमें शोधार्थी छपपटा रहे थे और साहित्यिक बन्धु अन्धकारमें थे । हिन्दी साहित्यकी लगभग सभी शोध पत्रिकाएँ नाहटाजीकी बड़ी ऋणी हैं। लगभग तीन हजार शोधपूर्ण लेख लिखकर नाहटाजीने उनको और हिन्दीसंसारको उपकृत किया है।
. जैन साहित्यपर नाहटाजीका अध्ययन बड़ा गहन है। उनका इस साहित्यपर लेखन भी पुष्कल है। मझे इस पीढ़ी में जैनसाहित्य से हिन्दीवालोंका तादात्म्य करानेवाले किसी ऐसे साहित्यिकका नाम नहीं मालम, जिसने इस दिशामें नाहटाजीसे अधिक काम किया हो ।
नाहटाजीका व्रजभाषा से भी असीम प्रेम है। वे ब्रजभाषा साहित्यके मर्मज्ञ है। ब्रजसाहित्यमण्डल के वे जन्मदाताओंमेंसे हैं। कई बार उससे सम्बद्ध साहित्य परिषद् और अनेक साहित्यिक समारोहों के वे अध्यक्ष रह चुके हैं। मण्डलकी मुखपत्रिका त्रैमासिक ब्रजभारती के वे अनन्य लेखक हैं। उनके लेख पत्रिका की अधिकांश प्रतियोंमें निकल चुके हैं।
____ अभिनन्दनके इस शुभ उत्सवपर मैं मित्रवर नाहटाजीको अपनी हार्दिक बधाई प्रस्तुत करता हूँ और सर्वशक्तिमान् से प्रार्थना करता हूँ कि वे शतायु हों और इसी प्रकार साहित्यिकों को प्रेरणा देते रहें।
साहित्यिक-कल्पद्रुम नाहटाजी
पं० कमलकुमार जैन शास्त्री राजस्थान अपने मध्यकालीन अतीतमें जहाँ स्वाभिमान, स्वतंत्रता और शौर्यका एक उज्जवल और अनुपम आदर्श रहा है, वहाँ उसकी मरुभूमि में अनेक साहित्यिक हरित भूमियाँ भी दृष्टिगत होती रही हैं । मरु-उद्यानकी इन्हीं अनेकानेक वृक्ष वल्लरियों के मध्य अभी बीकानेर के कुंज में एक ऐसा कल्पद्रुम भी है, जो बारहों मास साहित्यिक सुन्दर फल-फूलों से हरा-भरा और अवनत ( विनम्र ) रहा है। उस सदा बहार वृक्ष को पाठकगण श्रीअगरचन्द नाहटाके नामसे जानते हैं । अगर-चन्दनकी शीतल सुवास और प्रकाशमान वर्तिकासे माँ सरस्वतीका मन्दिर जितना आज महक रहा है, संभवतः उतना कभी और महका हो ......"स्मरण नहीं :
पुरातत्त्व, इतिहास और शोध सामग्रियोंसे भरा हुआ साहित्य स्वयं आज श्री नाहटाजीके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन हेतु लालायित हो उठा है। हस्तलिखित ग्रन्थों का जितना उद्धार और मूल्यांकन श्री नाहटा द्वारा १९६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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