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आजसे लगभग २५, ३० वर्ष पूर्व पृथ्वीराजरासोकी प्रामाणिकताके सम्बन्धमें विवाद उत्पन्न हुआ था। इतिहासकारोंके दो दल थे। प्रथम दल इस ग्रन्थको प्रामाणिक घोषित करता था और द्वितीय दल अप्रामाणिक । इसी समय नाहटाजीके कुछ निबन्ध प्रकाशित हए, जिनमें उन्होंने प्राचीन प्रतियोंके आधारपर पृथ्वीराजरासोके इस विवादका निर्णय किया ।
नाहटाजीका चिन्तन पक्ष भी अत्यन्त पुष्ट है । इन्होंने अनेक साहित्यिक कृतियोंका मूल्यांकन कर अप्रकाशित साहित्यको विद्वज्जगत्के समक्ष प्रस्तुत किया है। पुरुषार्थ और अध्यवसायसे मनुष्य अलौकिक अनुपम और मननीय वस्तुको भी प्राप्त कर लेता है । इस संदर्भमें हमें नाटककार भासकी एक उक्तिका स्मरण आता है, जिसमें उन्होंने अलभ्य वस्तुओं की प्राप्तिका साधन अध्यवसायको बताया है
काष्ठादग्निर्जायते मध्यमानाद्
भूमिस्तोयं खन्यमाना ददाति । सोत्साहानां नास्त्यसाध्यं नराणां
मार्गारब्धाः सर्वयात्राः फलन्ति ।। नाहटाजीने वाङ्मयपुरुषके रूपमें जन्म ग्रहण किया है। राजशेखरको काव्यमीमांसामें हमें काव्य पुरुषका अंकन मिलता है। इस काव्यपुरुषको समकक्षता हम नाहटा वाङ्मयपुरुषसे कर सकते हैं । हमें इस वाङ्मयपुरुषमें दर्शन और इतिहासकी पीठिकाएँ भी प्राप्त होती हैं । इतिहाससे वैज्ञानिक अम्वेषणकी सृष्टि
और चिन्तनकी प्रक्रिया इस वाङ्मयपुरुषमें समाहित है। तथ्यानुसन्धान और सत्यान्वेषणकी प्रक्रिया पूर्वाग्रहोंसे मुक्त होनेके कारण नयी दिशा और नवीन चिन्तनको उत्पन्न करती है। पुरातत्त्वान्वेषणात्मक निबन्धोंने इस वाङ्मयपुरुषमें जीवन्त कलाका संचार किया है। .
आश्चर्य तो यह है कि विश्वविद्यालयकी उपाधियोंसे मुक्त रहनेपर भी शताधिक शोधछात्रोंका मार्गदर्शन एवं सहस्राधिक जिज्ञासुओंको आवश्यक अध्ययन सामग्री प्रदान करनेका श्रेय इस निष्काम साधकको है। मैंने आपके द्वारा सम्पादित 'ऐतिहासिक जैनकाव्यसंग्रह' का अवलोकन कर आपकी प्रतिभा और क्षमताका परिचय प्राप्त किया था। जैन सिद्धान्त भास्करके नियमित लेखकके रूपमें मैं आपसे सन् १९४४ ई० से ही परिचित हूँ। मैंने पाया कि नाहटाजीको पत्र मिलने में डाककी गड़बड़ीके कारण विलम्ब हो सकता है, पर निबन्ध भेजनेमें इन्हें विलम्ब नहीं होता। वीणापाणिका वरदहस्त आपको प्राप्त है। राजस्थानकी वीरभूमि ऐसे सारस्वतको प्राप्तकर कृतार्थ है । निःस्वार्थसाधकके रूपमें राजस्थानी भाषामें लिखित ३०-४० ग्रन्थोंका सम्पादन और प्रकाशन कर अपने वाङ्मयपुरुषत्वको चरितार्थ किया है। राजशेखरने काव्यपुरुषकी उत्पत्तिके प्रसंगमें बताया है कि एक बार बृहस्पतिके शिष्योंने उनसे पूछा कि सरस्वतीके पुत्र काव्य-पुरुष कौन है ? बहस्पतिने काव्यपुरुषकी उत्पत्ति एवं चरित्रका निरूपण करते हुए बताया कि पुत्र उत्पत्तिके पश्चात् पुत्रने मां सरस्वतीके चरणोंका स्पर्श करते हुए छन्दोबद्ध भाषामें कहा
यदेतद्वाङ्मयं विश्वमर्थमूत्तर्या विवर्त्तते ।
सोऽस्मि काव्यपुमानम्ब ! पादौ वन्देय तावको ।। अर्थात् सारा वाङ्मय विश्व जिसके द्वारा अर्थरूपमें परिणत• हो जाता है, वह काव्य-पुरुष मैं तुम्हारे चरणोंकी वन्दना करता हूँ।
इस रूपकको हम नाहटा वाङ्मयपुरुषपर भी घटित कर सकते हैं । इस वाङ्मयपुरुषका शब्द और १९२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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