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________________ निर्वाणके ५३० वर्षके बाद लिखा गया था। इस ग्रन्थके विषयमें उठी कई शंकाओंके बारेमें उन्होंने कई विद्वानोंसे बातचीत की थी, किन्तु किसीसे उन्हें संतोषजनक और निश्चित मत नहीं मिल सका। उनमेंसे किसीने शंकाओंके समाधानके लिए नाहटाजीसे पूछने के लिये ही लिखा। तात्पर्य यह कि नाहटाजीके दृष्टिकोण एवं विचारोंको भारतके बड़े-बड़े विद्वान भी प्रमाणित और तथ्यपूर्ण मानते हैं। नाहटाजीका प्रिय विषय है प्राचीन शोध । वे इस विषयके प्रकांड पंडित माने जाते हैं। उनके करीब ३००० निबंध और विभिन्न विषयोंपर लिखे विद्वत्तापूर्ण लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित हए हैं। उनके लेख शोधपूर्णताके साथ-साथ नवीनतासे परिपूर्ण भी होते हैं। प्राचीन और नवीनका संतुलन उनमें होता है । वे हमेशा कहते हैं कि पिसे हुएको फिर दुबारा क्यों पिसना। इसीलिए उनके लेखोंमें नवीनता और स्वतंत्र विचार होते हैं। उन्हें लिखने-पढ़नेका व्यसन-सा हो गया है । नाहटाजी द्वारा लिखित और संपादित करीब डेढ़-दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दीमें वीरगाथाकाल, पृथ्वीराजरासो, विमलदेवरासो, खुमाणरासो, आदिकी जो नवीन शोध नाहटाजीने हिन्दी-संसारको दी है, इसके लिए हिन्दी साहित्य जगत् नाहटाजीका ऋणी रहेगा। शोधकार्यमें भी नाहटाजी गहरी दृष्टिसे काम लेते हैं। हिन्दीके महारथियोंके शोधकार्यमें भी वे भूल निकालते हैं। वह कहा करते हैं कि आजकल लोग परिश्रम करना नहीं चाहते। पकी-पकायी ही सबको अच्छी लगती है। हिन्दीके विद्वान् नई शोधके लिये परिश्रम न करके इधर-उधरका देखकर अपनी शोधकी इतिश्री मान लेते हैं । हिन्दीके जितने भी इतिहास शुरू-शुरूमें निकले, वे सब एक दूसरेकी नकल मात्र हैं, नवीन सामग्री नगण्य-सी है । यह खटकने जैसी बात है । हिन्दी के साहित्यिकोंको चाहिए कि वे हिन्दी भाषाको समृद्ध बनानेके लिए दिव्य तपस्या करें। नाहटाजीका जीवन अत्यन्त सादगीपूर्ण एवं धार्मिक है । अभिमान, झूठ, कपट आदिसे कोसों दूर रहते हैं। उन्होंने जैन सिद्धान्तोंको अपने जीवन व्यवहारमें गहराईसे उतारा है। वे रात्रिमें भोजन तो क्या पानी भी नहीं पीते । कहीं १-२ मील चलना हो तो वह पैदल ही चलेंगे। प्रत्येक कार्य में वे मितव्ययता करते हैं। ऐसे साहित्य-मनीषीका जरूर ही अभिनंदन होना चाहिए। राजपूताना विश्वविद्यालय एवं भारत सरकारको भी ऐसे विद्वानका उचित सम्मान करना चाहिए। वाङमय पुरुष प्रो० डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री 'पुरुषार्थी मनुष्यके सम्मुख लक्ष्मी हाथ जोड़कर खड़ी रहती है।' यह एक प्राचीन उक्ति है। पर पुरुषार्थी व्यक्ति सरस्वतीके भी कृपाभाजन बन सकते हैं, इसे जिन विद्वानोंने अपने कृतित्वसे चरितार्थं किया है, उनमें श्री अगरचन्द नाहटाका नाम विशेष उल्लेखनीय है। विद्यालयीय शिक्षाके न मिलनेपर भी अपने सतत स्वाध्याय और अनवरत श्रमके कारण मुर्धन्य सारस्वतोंमें स्थान प्राप्त करनेका श्रेय नाहटाजीको है। नाहटाजीको मैं हरिभद्रका या पंडितराज जगन्नाथका नवीन संस्करण मानता हूँ। ऐसा कोई विषय नहीं, जिसका स्पर्श नाहटाजीकी लेखनीने न किया हो। ज्योतिष, वैद्यक, तन्त्र, आगम, गणित, मन्त्र, अलंकार शास्त्र, काव्य, दर्शन आदि सभी विषयोंपर शोधात्मक और परिचयात्मक निबन्ध लिखकर माँ भारतीकी श्रीवृद्धि की है। इतिहास और शोध-खोज सम्बन्धी ऐसे अनेक प्रबन्ध इन्होंने लिखे हैं, जिनसे भारतीय इतिहासके काल-निर्णय सम्बन्धी तिमिरका नाश हुआ है। व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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