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विश्वविद्यालय और शिक्षा क्षेत्रसे सीधा सम्बन्ध न होनेपर भी उन्होंने इनके लिए जितना कार्य किया है, उतना न तो किसी प्राध्यापकने किया और न किसी दूसरे विद्वान ने। कैसी विडंबनाकी बात है, जिस विद्वत्-शिरो मणिसे ज्ञान के क्षेत्रका इतना विस्तार हुआ है, उसे किसी विश्वविद्यालयने 'डाक्टरेट'की 'आनरेरी' उपाधिसे सम्मानित करनेकी आवश्यकता नहीं समझी, यद्यपि उससे उक्त विश्वविद्यालयका ही सम्मान होता। . बड़े हर्ष की बात है कि विद्वानोंमें नाहटाजीके साहित्यिक ऋणसे किंचित उऋण होनेकी भावना जागृत हुई और उसके लिए उनका अभिनन्दन किया जा रहा है । मैं इस सुअवसरपर अपने मित्र नाहटाजीको हार्दिक बधाई देता हूँ। मेरी भगवान श्रीकृष्णसे प्रार्थना है कि वे उन्हें शतायु करें और जीवनपर्यन्त संस्कृति तथा साहित्यको समृद्ध करते रहनेकी शक्ति प्रदान करें।
शोधपुरुष श्री नाहटाजी
श्री श्रीरंजन सूरिदेव साहित्यके क्षेत्रमें, जब साहित्यकारके जीवनकी लम्बी साधनाके आकलनका क्षण आता है, तब साधक साध्य बन जाता है। कहना न होगा कि हस्तलिखित पोथियोंके इतिहास-लेखक श्री अगरचन्दजी नाहटा स्वयं इतिहास बन गये हैं। फलतः, वे सम्पूर्ण साहित्य-जगतके लिए जहाँ साध्य हो गये हैं, वहीं उल्लेख्य भी।
श्री नाहटाजीसे मेरा सर्वप्रथम पात्रिक परिचय पुण्यश्लोक आचार्य शिवपूजन सहाय तथा आचार्य नलिनविलोचन शर्मा जैसे पत्रकार-वरिष्ठद्वयके संयुक्त सम्पादकत्वमें प्रकाश्यमान बिहार हिन्दी साहित्यसम्मेलन (पटना)के शोध त्रैमासिक 'साहित्य में प्रथम जैनागम 'आचारांगसूत्र'के अध्ययन-विषयक लेखके सन्दर्भमें हुआ। श्री नाहटाजी, निसन्देह एक अधीती शोध-मनीषी हैं। उन्होंने मेरे उक्त लेखमें समाविष्ट कतिपय परिमार्जनीय त्रुटियोंकी ओर संकेत करते हुए मुझे एक पत्र लिखा था। यह बात वर्तमान शतीके छठे दशकके प्रारम्भकी है। उस समयसे अबतक श्री नाहटाजीके साथ मेरा अविच्छिन्न पत्र-सम्पर्क बना हआ है। उन्होंने अपने पत्रों के द्वारा न केवल मेरी जैनागम और जैन-परम्परा-विषयक जिज्ञासाओंको ही शान्त किया, अपितु इस दिशामें अक्लान्त भावसे आगे बढ़ते चलनेके सात्त्विक प्रोत्साहनसे भी मुझे परिबृंहित किया।
श्री नाहटाजीसे मेरा प्रथम साक्षात्कार, सन् १९६३ ई०के दिसम्बरमें, बिहारके प्रमुख जैनकेन्द्र आरा शहरमें, प्रसिद्ध प्राकृत पंडित डॉ० नेमिचन्द शास्त्रीके सारस्वत उद्यमसे, यशोधन जैनाचार्य डॉ. ए० एन० उपाध्यकी अध्यक्षतामें आयोजित जैन सिद्धान्त-भवनके हीरक-जयन्ती-समारोहके अवसरपर हुआ। उक्त समारोहकी जैन विद्वद्गोष्ठी में मुझे भी एक 'शोधपत्र' प्रस्तुत करनेका सौभाग्य उपलब्ध हुआ था इसी अवसरपर श्री नाहटाजीको 'सिद्धान्ताचार्य'को उपाधिसे अलंकृत किया गया था। श्री नाहटाजीके प्रत्यक्ष दर्शनसे जैसे मुझे कृतार्थता मिल गई। शलाकापुरुष जैसी, विस्तृत आयामवाली उनकी आवर्जक आकृति धोती, मिरजई और उन्नत उष्णीषके परिधानमें बड़ी ही प्राणमयी एवं प्रकाशवती प्रतीत हुई। 'विद्या ददाति विनयं' जैसी शाश्वत मूल्यकी सूक्तिको सार्थक करनेवाली वरेण्यतासे विभूषित श्री नाहटाजीके तरल सौजन्यसे होनेवाली आत्मीयत्वकी अजस्र वर्षासे मैं सूधास्नात हो उठा और उनके यथाप्राप्त अल्पावधि-मात्र सम्पर्कसे ही ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे मैं अपने किसी जननान्तर-परिचित विद्वान् अभिभावकके स्नेहलुप्त परिवेशसे पर्यावृत हो गया है। उनकी शुचि-रुचिर भव्यता जैसे मेरे उत्सुक मानसमें सहजभावसे संक्रान्त हो गई।
१८६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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