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हमें मार्गदर्शन देने के अलावा साथमें वे अपना संशोधन कार्य करते रहते थे। मेरी समझमें भारतीय भाषाओंकी अनेक संशोधन पत्रिकाओंमें उनका कुछ न कुछ प्रदान अभी तक चालू है । विद्वानोंके साथ अपने वाणिज्यके व्यवसायको छोड़कर संशोधन विषयक अनेक ज्ञानगोष्ठियोंमें उन्हें इतना आनन्द आता है कि वे उस समय भूल जाते हैं कि वे एक व्यापारी हैं। विद्वानोंको उनकी लगन और सारस्वतोपासना देखकर यह बात विस्मृत सी हो जाती है कि अगरचन्दजी नाहटा एक अच्छे व्यापारी हैं। इस गौरवके कारण उनका निजी हस्तलिखित पुस्तकोंका संग्रह करीब चालीसहजारसे भी अधिक है। उसी तरह मुद्रित पुस्तकोंका भी उतना ही विपुल संग्रह है। उनके निजी अभय जैन ग्रन्थालय में अनेक पत्र-पत्रिकाएँ तथा संशोधन सामयिक आते हैं।
ऐसे श्रेष्ठिसारस्वतका जैन संघकी अनेक सेवा संस्थाओंसे सम्बन्ध हो उसमें आश्चर्य नहीं है परन्तु नागरी प्रचारिणी, भारतीय विद्याभवन जैसी सर्वसम्मान संस्थाओंसे भी उनका गाढ़ सम्बन्ध है।
ऐसे सुयोग्य श्रेष्ठिसारस्वतको परमकृपालु भगवान दीर्घ आयुष्य प्रदान करें, यही शुभभावना है ।
संस्कृति और साहित्यके लिए नाहटाजीकी महान् देन
श्री प्रभुदयाल मीतल श्री अगरचन्दजी नाहटा राजस्थानके होते हुए भी वस्तुतः समस्त भारतवर्षके हैं, क्योंकि उनकी महान देनसे देशभरकी संस्कृति और साहित्यकी समृद्धिमें अनुपम योग मिला है । उनके दीर्घकालीन अनुसंधानसे ऐसे महत्त्वपर्ण तथ्य प्रकाशमें आये हैं कि वे भारतीय संस्कृति और साहित्यके इतिहास में प्रचुर काल तक प्रमुख स्थान प्राप्त करते रहेंगे ।
नाहटाजी विगत ४० वर्षोंसे अनुसंधान-अध्ययन, शोध-समीक्षा और लेखन-संपादनके गुरुतर कार्योंमें लगे हुए हैं। उन्होंने अकेले ही इन क्षेत्रोंमें इतना विपुल कार्य किया है, जितना दस विद्वान् भी कठिनतासे कर सकेंगे। उनके कार्यक्षेत्रकी परिधि बड़ी व्यापक एवं विशाल है और उनके मित्र, प्रशंसक और पाठक देशभरमें बिखरे हुए है।
उन्होंने जैन धर्म, दर्शन, साहित्य और इतिहास तथा राजस्थानकी भाषा, ऐतिहासिक परंपरा और साहित्यिक समृद्धिका बड़ा गहन अध्ययन एवं व्यापक अनुसंधान किया है और फिर उन विषयोंपर खूब जम कर लिखा है । उनके तत्संबंधी लेख प्रायः दो सौ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। हिन्दीका शायद ही कोई ऐसा सामयिक पत्र हो, जिसमें उनके अनेक लेख प्रकाशित न हुए हों।
मेरा उनसे ३० वर्ष पुराना परिचय है, जो उनके लेखोंके माध्यमसे ही हुआ है। अब तो उक्त परिचयने घनिष्ठ,मित्रताका रूप धारण कर लिया है। वे 'ब्रजभारती'में आरम्भसे अब तक बराबर लिखते रहे हैं। उनके लेखोंसे ब्रजसंस्कृति एवं साहित्यके विविध अंगोंपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ा है। मेरे आग्र उन्होंने ब्रज साहित्य मंडलके मथुरा अधिवेशनपर आयोजित 'ब्रज साहित्य परिषद'की अध्यक्षता की थी और 'सर-विचार-संगोष्ठी में योग दिया था। उन अवसरोंपर उनके विद्वत्तापर्ण भाषणोंसे उपस्थित विद्वत् जन बड़े प्रभावित हुए थे।
उनके अनुसंधानोंका लाभ विद्वानों, प्राध्यापकों, शोधाथियों और लेखकोंने समान रूपसे उठाया है। उनसे विविध भौतिकी सहायता लेकर सैकड़ों शोधार्थी 'डाक्टरेट' की उपाधियाँ प्राप्त करने में सफल हए हैं।
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १८५
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