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उन्होंने 'समयसुन्दरकृति कुसुमांजलि' नामक एक ग्रंथका सम्पादन बहुत पहले किया था। इस सम्बन्धमें मेरा ज्ञान अल्प है, अतः मैं इस दिशामें किये गये नाहटाजीके कार्यका समुचित मूल्यांकन करने में असमर्थ हूँ किन्तु राजस्थानी साहित्य तथा हिंदी साहित्यके सम्बन्धमें उन्होंने जो संकलन-सम्पादन किया है, वह अवश्य ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
नाहटाजीके कार्यका स्मारक स्वरूप है "राजस्थानमें हिन्दी ग्रंथोंकी खोज"। इनके दो भागोंका संकलन-सम्पादन नाहटाजीने किया है। यह कई भागोंमें छपा है। अकेले एक व्यक्तिने जितना कार्य कर दिखाया है, वह बड़ीसे बड़ी संस्थायें नहीं कर पातीं। इसीलिये मैं उन्हें जीती-जागती संस्था कहता हूँ। वे स्वयंमें साहित्यिक तीर्थ बन चुके हैं। जिस किसीको हिन्दी पाठालोचन या प्राचीन साहित्यपर कार्य करना है, उसे नाहटाजीके दर्शन करने ही होंगे।।
नाहटाजी स्वयंमें हिन्दी साहित्यके एक युग स्वरूप रहे हैं। उन्होंने स्वयं नवीनसे नवीनतम सामग्री प्रस्तुत की है और अन्योंको नई दिशायें प्रदान की हैं। उनका उदार पथ-प्रदर्शन बहुतोंको प्राप्त हुआ है। मेरे लिये तो वे सतत प्रेरणाके स्रोत रहे हैं। ऐसे युगपुरुषको मैं श्रद्धावनत होकर प्रणाम करता हूँ।
श्रेष्ठि विद्वान् श्री नाहटाजी
डॉ. जितेन्द्र जेटली विश्वमें लक्ष्मी और सरस्वतीका सुभग समन्वय अपने भारतवर्ष में विरल ही प्रतीत होता है। उसमें भी मरुभूमि या राजस्थान तथा गुजरात ये दोनों प्रदेश सरस्वतीकी अपेक्षा लक्ष्मीके प्रति अधिकतर आकृष्ट होनेकी वजहसे यह समन्वय और भी विरल है। अन्य प्रदेशों जैसे कि महाराष्ट्र, बंगाल, मद्रास वगैरहमें विद्वानोंका सम्मान जिस परिमाणमें किया जाता है और देखा जाता है उस परिणाममें राजस्थान और गुजरातमें नहीं है। इतना ही इस कटु सत्यका तात्पर्य है । कभी-कभी सामान्य बातोंमें भी अपवाद हुआ करता है । वैसा अपवाद श्रेष्ठी श्री अगरचन्दजी नाहटा हैं। वे केवल अच्छे व्यापारी और अच्छे श्रेष्ठी ही नहीं है अपितु वे राजस्थानमें इने-गिने सारस्वतोंमेंसे एक हैं।
मेरा और उनका परिचय जब महामना स्व० मुनिश्री पुण्यविजयजी जैसलमेरके ज्ञान भण्डारोंके उद्धारके वास्ते गये थे, उस समय हुआ । मैं अपनी संस्थाकी ओरसे इस कार्य में यत्किञ्चित्साहाय्य देने के वास्ते भेजा गया था और अगरचन्दजी अपनी संशोधन विषयक रसिकता और लगनके कारण वहाँ आ गये। वे केवल तीर्थयात्राके उद्देश्यसे वहां नहीं आये थे परन्तु वे उन दिनोंमें उस कार्यमें लगे हए विद्वानोंके साथ चर्चाके अलावा अपने संशोधनको आगे बढ़ाने आये थे ।
वे यद्यपि एक अच्छे व्यापारी हैं परन्तु व्यापारका कार्य वे वर्ष में केवल २-३ महीना ही व्यवस्थित रूपसे करते हैं । उनकी व्यवस्थासे उनका कारोबार व्यवस्थित रूपसे चलता रहता है। आठ-दस मास तक वे बराबर संशोधन कार्यमें लगे रहते हैं। उनके आमन्त्रण से मैं और डॉ० सांडेसगजी बीकानेर गये थे। उन्होंने परिश्रमके साथ बीकानेरके सभी ज्ञान भण्डार साथमें चलकर दिखलाये और कौन सी सामग्री हमें हमारे विषयके वास्ते कहाँसे मिल सकती है, इसका भी मार्गदर्शन दिया था। अनेक अप्राप्य हस्तलिखित. ग्रन्थ उनकी सहायतासे देखने के लिये प्राप्त हो सके । उनकी सहायतासे ही हम बीकानेर राज्यके हस्तलिखित . पुस्तकोंके निजी संग्रहको देख सकें।
१८४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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