________________
मझे सर्वप्रथम १९५९में नाहटाजीके दर्शन करने तथा बीकानेर जाकर एक मास तक उनके सम्पर्क में आनेका सुअवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने न केवल मेरे ठहरने तथा सुख सुपासका प्रबन्ध किया था वरन अपने एक शिष्यको अनुप संस्कृत लाइब्रेरी तक मुझे ले जाने तथा बीकानेरके प्रसिद्ध स्थलोंको दिखानेके लिए नियुक्त कर दिया था।
उनके विद्याव्यसनका प्रतीक अभय जैन ग्रंथालय है। यह दुमंजिला भवन है, जिसमें अगणित अमूल्य पाण्डुलिपियोंके अतिरिक्त चिर तथा पुरातत्व सामग्री संगृहीत है। एक व्यक्तिकी विलक्षण पठनरुचि तथा संग्रहप्रवृत्तिका इसीसे अनुमान लगता है। नाहटाजी इस ग्रन्थालयके निदेशक हैं। वे इसके उन्नयनके लिए पुस्तकोंकी खरीदसे लेकर रजिस्टर में उनको दर्ज करने तकका कार्य स्वयं करते हैं। वे बाहरसे एकत्र की गई पाण्डुलिपियोंका स्वयं अनुसंधान करके उनका परिचय लिखते हैं । शायद ही कोई ऐसा साहित्यकार हो, जिसे इतनी पाण्डुलिपियोंमें डूबने-उतरानेका सुख प्राप्त हआ हो । ऐसे ही विरल मनस्वी श्री रायकृष्णदास हैं, जिन्होंने अपने बूतेपर 'भारत कलाभवन'का निर्माण किया है । ऐसी विभूतियाँ कम ही हैं।
नाहटाजीके विद्याव्यसनका एक प्रमुख अंग है पत्राचार । वे पत्र लिखने में जितनी तत्परता दिखाते हैं उतनी तत्परता मैंने राहुलजी तथा डॉ. वासुदेवशरणजी अग्रवालमें पाई थी। आप कैसी भी सूचना क्यों न माँगें, सहज भावसे वे उसे बिना किसी देरीके आप तक पहुँचा देंगे। यह मानवीयताका अत्यन्त पुष्ट पहलू है। एक बार पत्रव्यवहार स्थापित हो जानेपर वे स्वयं भी पत्र लिखकर कुशल समाचारोंसे लेकर गहन साहित्यिक चर्चाकी पूछताछ करते रहते हैं। मेरे पास उनके शताधिक पत्र होंगे जिनमें उन्होंने मेरी पुस्तकोंकी आलोचना, सम्मति आदिसे लेकर मेरे स्वास्थ्य एवं मेरे परिवारके कुशल क्षेम का जिक्र किया है। वैसे
जी की लिखावट पढ़ लेता है किन्तु एक बार कुछ शब्द मैं नहीं पढ़ पाया तो प्रमोदवश मैंने लिख भेजा कि कृपया अक्षर साफ लिखा करें। तबसे वे या तो टाइप करके या दूसरेसे पत्र लिखाकर और उसमें अपने हस्ताक्षर करके मुझे अनुगृहीत करते रहे हैं । .
नाहटाजी अनन्य जिज्ञासु हैं । नवीन पुस्तकोंकी सूची, नई पत्रिकाओंके पते और नई पाण्डुलियोंकी सुचनायें प्राप्त करते रहना मानों उनका कार्यक्रम बन चुका है। यही नहीं कि वे हिन्दी साहित्यकी पत्रिकाओं में ही अभिरुचि लेते हों, वे विज्ञानविषयक पत्रिकाओंके सम्बन्धमें भी रुचि लेते रहे हैं। मुझे स्मरण है, एक बार उन्होंने मुझसे 'विज्ञान' के सम्बन्धमें जानकारी चाह थी और तदनन्तर मेरे अनुरोधपर एक लेख भी प्रकाशनार्थ भेजा था। जब-जब मैंने नई पत्रिकायें निकाली-चाहें 'अन्तरवेद' रहा हो या 'अपरा'-नाहटाजीने अपने शुभाशीर्वादसे मुझे प्रोत्साहित किया है।
नाहटाजीका कृतित्व असीम है। उनकी विद्या-मन्दाकिनी विनयसम्पन्न होनेके कारण ऐसे करारोंको स्पर्श करती हुई अग्रसर हुई है कि 'साठसहस्र' सगरके ही पुत्र नहीं, मनुके सभी पुत्र-मनुज-उससे तर गये हैं। नाहटाजीने अपने विचारोंको, अपनी विद्वत्ताको लेखोंके रूपमें प्रस्तुत किया है और इन लेखोंको उन्होंने मुक्तहस्तसे लुटाया है, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंने इन लेखोंको प्रकाशित करनेमें गौरवका अनुभव किया है। फलस्वरूप नाहटाजी हर पढ़ेलिखे घरमें प्रवेश पा सके हैं। मेरे विचारसे नाहटाजी अवढर दानी हैं। अपनी प्रतिभाको प्रकाशमें लाने के लिए उन्होंने काफी श्रम किया है। उन्होंने भारत भरके ग्रंथागारोंको छान डाला है तब उनकी लेखनी चली है। वे परम लिक्खाड़ है। 'कल्याण से लेकर 'हिंदुस्तानी' तकमें उनके लेख पढ़े जा सकते हैं। एक बार उन्होंने मुझे अपने लेखोंकी एक सूची भेंट की थी, जिसमें कमसे कम एक सहस्र शीर्षकोंका उल्लेख था। अब इनकी संख्या अवश्य ही दूनी-तिगुनी हो चुकी होगी। नाहटाजीकी अभिरुचि प्राचीन साहित्यके प्रति रही है। उन्हें जैनसाहित्यपर एकाधिकार प्राप्त है।
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १८३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org