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पाकर मुझे प्रसन्नताके साथ-साथ कुछ विस्मय भी हुआ, कि वह कैसा व्यक्ति है। कितना सहृदय है, जिसे शोध-कर्ताओंसे इतनी गहरी सहानुभूति है। कुछ भी पूर्व-परिचय न होनेपर भी उसने मुझे निराश नहीं किया । नहीं तो विद्वानों द्वारा पत्रोत्तरमें आलस्य अथवा उपरामता बरतनेकी शिकायत प्रायः सर्वत्र सुनी जाती है। श्री अगरचन्दजी नाहटा इस बातमें भी अपवाद ही प्रमाणित होते हैं ।
मेरी भाँति अनेक शोध-कर्ता श्री नाहटाजीसे उपकृत हुए हैं और हो रहे हैं। वे सभी मेरी ही भाँति सरस्वतीके साधक इन श्रेष्ठिवरके प्रति अपनी कृतज्ञता, श्रद्धा एवं सम्मान प्रकट कर रहे हैं और करते रहेंगे।
विराट व्यक्तित्व एवं असीम कृतित्व
___डॉ. शिवगोपाल मिश्र मैं प्रारम्भसे हो जिन तीन महान विभूतियोंसे प्रभावित हुआ, वे थीं-राहुलजी, वासुदेवशरण अग्रवाल एवं श्री अगरचन्दजी नाहटा । यदि इन तीनोंको मैं हिन्दी साहित्यके तीन आधारस्तम्भ कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। इनमेंसे प्रथम दो विभूतियाँ अब इहलोकको त्यागकर परलोकवासी हो चुकी हैं किन्तु सौभाग्यसे नाहटाजी अपने जीवनके ६० वर्ष पार करके भी हिन्दी साहित्यकी श्रीवृद्धिमें दत्तचित्त है।
हिन्दी साहित्यके इतिहासमें नाहटाजीका अपूर्व योगदान रहा है। यदि मिश्रबन्धुओंको हिन्दीके अनेक कवियोंको उद्घाटित करने और आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी को हिन्दी साहित्यका प्रामाणिक इतिहास लिखनेका श्रेय प्राप्त है तो श्री नाहटाजीको प्राचीनसे प्राचीन हिन्दी कृतियोंको प्रकाशमें लानेका श्रेय प्राप्त है । इस दिशामें नाहटाजीका योगदान अद्वितीय है । वे हिन्दी साहित्यके महान् इतिहासज्ञ है।।
यद्यपि राजस्थानके इतिहासमें कर्नल टाडका बहुत नाम है किन्तु मैं नाहटाजीको उनसे भी बढ़कर मानता हूँ । साहित्यकी सरस्वतीको मरुभूमिमें सतत प्रवह रखने में नाहटाजीके भगीरथ-प्रयासकी जितनी भी प्रशंसा की जाय थोड़ी है।
नाहटाजीके विराट व्यक्तित्वके अपरिहार्य अंग है-उनकी सरलता, निश्छलता, उनका विद्याव्यसन एवं उनकी संचयवृत्ति । वे इतने सरल है, उनकी वेषभूपा ऐसी है और वे अहंकारसे इतने परे हैं कि कोई भी उनसे मिलकर अपने अन्तरतमकी बात कह-सुन सकता है। वे सरलता की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं। धोती, कुर्ता और पगड़ी, यही है उनकी वेशभूषा।
उनमें छलकपट रंच भर भी नहीं है। आये दिन तमाम शोधछात्र उनसे पाण्डुलिपियों के सम्बन्धमें जानकारी मांगते रहते हैं, जिन्हें वे नूतनतम सूचनासे उपकृत करनेके साथ ही कभी-कभी मूल पाण्डुलिपि भी भेज देने तककी सदाशयता दिखाते हैं । यदि कोई अनुसंधित्सु किसी महत्त्वपूर्ण कृतिकी प्रतिलिपि चाहता है तो वे उसका भी प्रबन्ध कर देते हैं । बदले में वे उन व्यक्तियोंसे ऐसी ही जानकारी या सूचना प्राप्त करनेमें तनिक भी हिचकका अनुभव नहीं करते । मैंने उन्हें कई बार प्रतिलिपि कराकर सामग्री प्रेषित की है।
नाहटाजीको पढ़नेका व्यसन है। उन्होंने स्वयं एक स्थानपर लिखा है कि स्कूली शिक्षा बहुत कम रही है किन्तु उन्होंने स्वाध्यायके बलपर इतना ज्ञान अजित किया है। नाहटाजी मूलतः व्यवसायी हैं। साहित्य तो उनका व्यसन है जो अब उनका जीवन-रक्त बन चुका है।
१८२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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