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जैसा मैंने जाना डॉ. पीताम्बर नारायण शर्मा
किसी परिहासप्रिय आलोचकने विधातापर आक्षेप करते हुए कहा हैगन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे
नाकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य । विद्वान् धनाढ्यो नृपतिश्चरायुर
धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत् ॥ विस्टर्नबाक संपादित चाणक्य नीति संप्रदाय, भाग २, खण्ड २, श्लोक
३३४, पृ. २१२ )
- विधाताको पहले कोई अकल देने वाला नहीं हुआ । कदाचित् इसीलिए उसने सोने में सुगन्ध, गन्ने में फल और चन्दन के वृक्ष पर फूल नहीं लगाये । इतना ही नहीं, वह विद्वान को धनी और राजा को दीर्घजीवी नहीं बनाता ।
इसे हम विधाताका नियम कह सकते हैं । किन्तु, नियममें अपवाद भी होते हैं । श्री अगरचन्दजी नाहटा जैसे व्यक्ति विधाता के इस नियम के अपवाद माने जा सकते हैं। श्री नाहटाजी विद्वान् होते हुए भी श्रेष्ठ हैं । उनका निर्माण करते हुए कदाचित् विधाताको कोई बुद्धि देनेवाला मिल गया होगा ।
श्री अगरचन्दजी नाहटा व्यापारी व्यवसायी होते हुए भी उत्कट विद्याव्यसनी हैं। यह उनके चरित्र - की विरल विशेषता ही कही जायेगी ।
सन् १९५७-५८ के बीच संस्थान संचालक आचार्य विश्वबन्धुजीके विशेष आमन्त्रणपर श्री नाहटाजी विश्वेश्वरानन्द संस्थान, साधु आश्रम, होशियारपुरमें पधारे थे । उन दिनों संस्थानके लगभग दस हजार हस्तलेखोंका 'हस्तलेख ग्रन्थ परितालिका के लिए विवरण तैयार किया जा रहा था। श्री नाहटाजी को संस्थान में संगृहीत कतिपय जैन हस्तलेखोंके वर्गीकरण तथा विवरण तैयार करनेमें सहायतार्थ आमन्त्रित किया
गया था ।
संस्थान पुस्तकालयाध्यक्ष श्री शिवप्रसाद शास्त्रीजीके शब्दोंमें— श्री नाहटाजी सिरपर राजस्थानी निराली पगड़ी धारण किये, बड़ी-बड़ी मूँछों वाले, धोती-कुर्ता पहने, भरे-भरे बदनकी भव्य एवं हँसमुख आकृति के व्यक्ति हैं । उनकी सौम्य प्रकृति एवं जैनसाहित्यका अगाध पाण्डित्य मनको मुग्ध करनेवाली है ।
श्री अगरचन्दजी नाहटा संस्थानमें चार-पाँच दिन ठहरे थे । इस अल्पकालमें ही वे अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्वकी एक अमिट छाप यहाँके लोगोंपर छोड़ गये, जिसे आज भी बड़े आदरके साथ स्मरण किया
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मुझे अभी तक श्री अगरचन्दजी नाहटासे साक्षात्कार करनेका सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है । किन्तु, उनके कृतित्व द्वारा मैं उन्हें बहुत समयसे जानता हूँ। पत्र द्वारा मेरा परिचय अपने शोध-प्रबन्धकी तैयारी के दौरान सन् १९६३ से है । श्री नाहटाजीके सपनावती कथा, छिताई वार्ता, प्रेमावती कथा आदि लेख नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सम्मेलन पत्रिका आदिमें प्रकाशित मैंने देखे । कुछ अन्य लेखोंकी सूचना भी मुझे मिली । किन्तु, वे पत्रिकाएँ तथा वे अंक हमारे संस्थान - पुस्तकालय में नहीं थे। मुझे अपनी शोध-प्रबंध ( जायसीपुराकथा-मीमांसा) के लिए इस सामग्री तथा अन्य सूचनाओंकी आवश्यकता थी । मैंने पत्र द्वारा श्री नाहटाजीसे प्रार्थना की और मुझे शीघ्र ही मेरी इच्छित सामग्रीकी प्रतिलिपि तथा सूचनाएँ मिल गयीं । यह सब
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १८१
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