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सामग्रीका संग्रह करनेकी विरल वृत्ति भी नाहटाजीमें रही है। यह सद्भाव नाहटाजीके अपनी मातृभूमिके प्रति प्रेमका परिचायक है।
___ साहित्य प्रेमी होनेके साथ ही विद्वान नाहटाजी उद्योग प्रेमी तथा राष्ट्रवादी देशभक्त भी हैं । मारवाड़ी वेशभूषा धारण करने पर भी कृपणता अथवा संकुचित प्रादेशिक भावनाओंसे नाहटाजी सर्वथा ही मुक्त हैं । जहाँ राजस्थानी साहित्य-संस्कृतिके प्रति उनमें असीम अनुराग है, वहीं उनके विशाल हृदयमें समग्र देशके साहित्य संशोधनकी तीव्र उत्कण्ठा भी रही है। अखिल भारतीय लोक साहित्य तथा उसके सम्मेलनोंमें भी नाहटाजीने सदैव सहयोग दिया है । राजस्थानी लोक साहित्य समितिमें भी श्री नाहटाजीका नाम तथा स्थान अपने कृतित्व तथा व्यक्तित्वके कारण प्रमुख रहा है।
संक्षेपमें मैं यही कहूँ कि नाहटाजी जैसी विरल व्यक्तित्व वाली विभूति साहित्य-संशोधनकी दृष्टिसे राजस्थानकी भूमिमें युगों बाद ही अवतरित होती है । नाहटाजीका अभिनन्दन हो रहा है, उसे मैं यों कहूँ कि 'राजस्थानकी जीती जागती रिसर्च लेबोरेटरीका अभिनन्दन हो रहा है' इस विरल व्यक्तिके लिये हमारी शुभ कामना है-शतं जीव शरदः !
साहित्य-गगन के दैदीप्यमान
___ श्री चिम्मनलाल गोस्वामी श्रीअगरचन्द नाहटाको मैं सन् १९२३ से जानता हूँ। उन दिनों मैं बीकानेरके जैन पाठशाला हाईस्कूलका प्रधानाध्यापक था। मेरे आनेके पूर्व वह एक मिडिल स्कूल था। श्री अगरचन्द पाँचवीं कक्षाकी परीक्षा पास करके स्कूल छोड़ चुके थे और पूर्व सम्बन्धके नाते स्कूलमें आया-जाया करते थे। उस समय किसको पता था कि श्री अगरचन्द आगे चलकर राजस्थानके साहित्य-गगनके एक दैदीप्यमान नक्षत्र होकर चमकेंगे।
भगवत्कृपासे दस ही वर्ष बाद मैं गोरखपुर चला आया और भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक पत्र 'कल्याण' से मेरा सम्बन्ध हो गया। कुछ ही वर्षों बाद श्रीअगरचन्दके लेख कई पत्र-पत्रिकाओं में निकलने लगे और धीरे-धीरे 'कल्याण' के भी ये एक सम्मान्य एवं विशिष्ट लेखक बन गये ।
राजस्थानी साहित्यके तो ये एक विशेषज्ञ माने जाने लगे और बीकानेरके 'सादुल राजस्थानी शोधसंस्थान के निदेशकके रूपमें इन्होंने राजस्थानी साहित्यके जाज्वल्यमान रत्नोंको प्रकाशमें लाकर उक्त साहित्यकी अभूतपूर्व सेवा की । इनके लेख बड़े ही विचारपूर्ण एवं शिक्षाप्रद होते हैं तथा अत्यन्त सरल एवं सुबोध भाषामें लिखे रहनेके कारण बड़े ही हृदयग्राही भी। जैनमतके अनुयायी होते हुए भी इनके सनातन हिन्दूधर्मके प्रति बड़े उदार भाव हैं और इन्होंने हिन्दूधर्मके सिद्धान्तोंका बड़ी ही आदर-बुद्धिसे अनुशीलन भी किया है।
ये चरित्रके बड़े निर्मल हैं और धनी होते हुए भी बड़ा ही सादा जीवन व्यतीत करते हैं । एक व्यापारी होनेपर भी इनका विद्या-व्यसन एवं साहित्यानुराग सराहनीय एवं प्रेरणाप्रद है।
राजस्थानी होने के नाते मुझे इनके कृतित्वपर गर्व है । मुझे यह जानकर प्रसन्नता हई कि इनके जीवनके साठ वर्ष व्यतीत हो जानेपर विद्वद्वर्ग इन्हें अभिनन्दन-ग्रन्थके द्वारा सम्मानित करना चाहता है । मैं उनके इस समयोचित प्रयास एवं गुणग्राहकताका हृदयसे समर्थन करता हूँ । भगवान् करें श्रीअगरचन्द शतायु हों और भविष्यमें भी इनके द्वारा हिन्दी एवं राजस्थानी साहित्यकी बहुमूल्य सेवा होती रहे।
१८०: अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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