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श्री नाहटाजीकी स्मृतिसे मेरी व्यस्तता समयकी रिक्तता भरती चली गई। दूसरी बार उनका सत्संग बम्बई में, सन् १९६८ ई० में, प्राप्त हुआ। कलकत्ताके 'श्री श्वेताम्बर जैन तेरापन्थी महासभा' द्वारा, आचार्य श्री तुलसीकी वाचनाप्रमुखतामें पुरःसृत आगम-ग्रंथोंके विमोचनके निमित्त समारोह आयोजित विद्वद्गोष्ठीमें 'शोधपत्र' प्रस्तुत करनेके लिए पदापित पण्डितोंकी मालामें श्री नाहटाजी सुमेरुकी भांति सुशोभित हुए थे। उक्त गोष्ठीमें गुणग्राहक श्री नाहटाजीने जब मेरे शोधपत्रकी अनुशंसा की, तब मैं पुनः एक बार उनके सहज साहित्यिक वात्सल्य से भींग उठा ।
श्री नाहटाजीको हस्तलिखित पोथियोंका 'शोध-अवधूत' कहा जाय, तो कोई अत्युक्ति नहीं। अवधूत' की परिभाषा देते हुए प्रसिद्ध कोशकार पं० वामन शिवराम आप्टेने कहा है कि 'अवधूत' उस संन्यासीको कहते हैं, जिसने सांसारिक बन्धनों तथा विषय-वासनाओंको त्याग दिया है। इसके अतिरिक्त, 'अवधूत' को 'आत्मन्येव स्थितः' भी कहा गया है । तो, अवधूतकी यही 'आत्मस्थता' श्री नाहटाजीकी अपनी अद्वितीय
है। वे संग्रहालयोंसे कबाड़खानोंतक, 'हस्तलिखित' या 'दुर्लभ मद्रित' पोथियोंकी खोजमें, तीर्थभावसे अटन करते हैं । बम्बईमें मैंने देखा कि प्राचीन पोथियों और पत्र-पत्रिकाओंकी खोजमें वे अपनी सुध-बुध खोकर संग्रहालयोंमें जितनी श्रद्धासे घूम रहे हैं, उतनी ही तल्लीनतासे कबाड़खानोंकी खाक छान रहे हैं । और, वहाँसे प्राप्त जीर्ण-शीर्ण पोथियों और पत्र-पत्रिकाओंको इस गौरवके साथ प्रदर्शित कर रहे हैं, मानों अनमोल हीरे-मोतियोंका खजाना ही उनके हाथ लग गया हो। उनके इस शोध-परिचंक्रमण या अभियानमें एक दिन मैं भी आवेष्टित हो गया और घुणाक्षरन्यायसे बम्बईके विख्यात प्रिंस ऑव वेल्स म्यूजियमके तत्कालीन निदेशक प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ डॉ० मोतीचन्द्रके महिमामय सान्निध्यका प्रायोदुर्लभ सौभाग्य मुझे सहज ही सुलभ हो गया। कहना अपेक्षित न होगा कि श्री नाहटाजीके निजी विशाल पुस्तकालय ( अभय जैन ग्रंथालय )में अनेक कबाड़खानोंसे उपलब्ध विविध ग्रंथरत्नोंकी बहुत बड़ी संख्या सुरक्षित है । कालिदासने कहा भी है : 'न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत् ।'
श्री नाहटाजी न केवल 'ग्रन्थी भवति पण्डितः'को ही सार्थक करते हैं, अपितु वे ग्रंथरत्नोंकी परखमें निपुण जौहरीकी भी सफल भूमिका निबाहने में प्रख्यात हैं, हालाँकि, आजकलका फैशन तो यह है कि ग्रन्थोंका विभ्राट संकलन करके उनमें यत्र-तत्र लाल पेंसिलसे चिह्न लगाकर उन्हें केवल बैठकखानेकी आलमारियोंकी शोभा बढ़ाने के लिए ही छोड़ दिया जाता है। कथित संकलनकर्ता यथा संकलित पुस्तकोंकी भूमिका तक पढ़नेका कष्ट नहीं कर पाते। फिर भी, उनका स्वयं सर्वस्वीकृत अधीती होनेका दावा करना सहज गर्वस्फीत धर्म हुआ करता है । किन्तु, इसके विपरीत, श्री नाहटाजी सही माने में एक ईमानदार अधीती हैं। सम्पूर्ण भारतकी शायद ही कोई पत्र-पत्रिका छूटी हो, जो श्री नाहटाजीके हस्तलिखित पुस्तकोंके अध्ययन-विषयक लेख-सम्पदासे वंचित हो। ख्याल ही नहीं, हकीकतकी बात तो यह है कि श्री नाहटाजीके सहस्राधिक ऐसे लेख प्रकाशमें आ चुके हैं, जिनसे हस्तलिखित पोथियोंकी खोजकी दिशामें नई विचार-शिला स्थापित हुई है । श्री नाहटाजी न केवल स्वयंकृत शोधकी परिधि तक ही सीमित हैं, वरंच वे अखिलभारतीय स्तरपर सम्पन्न साहित्यिक शोधकार्यकी व्यापकताके भी पूर्ण विज्ञाता हैं । आवश्यकता इस बातकी है कि यत्रतत्र-विकीर्ण उनके हस्तलिखित ग्रन्थ-विषयक शोधपूर्ण लेखोंका पुस्तकाकार प्रकाशन प्रस्तुत किया जाय, जिससे शोध-इतिहासमें अद्यावधि अनास्वादित अनेक दृष्टिकोणोंके उद्घाटनकी सम्भावना भी सुनिश्चित है।
श्री नाहटाजी अविश्रान्त लेखनीके धनी हैं, तो अविराम अध्ययनके उत्तमर्ण भी । फलतः, साहित्यिक शोध-जगत निस्सन्देह उनका अधमर्ण है कि उसने उनके द्वारा प्रस्तुत अगण्य अछुते सन्दर्भोको समा
व्यक्तित्व कृतित्व और संस्रमण : १८७
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