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________________ जैसे व्यक्तिको कोई पछनेवाला भी न था। श्रद्धेय नाहटाजी मक-साहित्यकारोंकी इस विवशताको अच्छी तरह समझते हैं तथा बड़े-बड़े नगरोंमें दीपक लेकर उनकी बड़ी ही लगनके साथ खोज-बीन करते रहते हैं। वे हर प्रकारकी सहानुभूति, यथासम्भव सुविधाएँ एवं आवश्यक पथ-निर्देशोंके साथ उन्हें आश्वस्त कर उत्साहित एवं प्रेरित करना मानों अपना कर्त्तव्य समझते हैं। उनका मेरे साथ प्रत्यक्ष-परिचयका यही प्रारम्भिक इतिहास है। इसके बाद तो वे सदाके लिए मेरे अपने हितैषी, गुरुतुल्य पथ-निर्देशक हो गये। उनसे सदैव पत्र-व्यवहार बना रहा और हर प्रकारसे मुझे साहाय्य मिलता रहा । इस बीचमें मैं कलकत्ता छोड़कर शहडोल, वैशाली एवं उसके बाद आरा आ गया । उन्हें यह ज्ञात था कि मैं मध्यकालीन महाकवि रइधूपर शोध-कार्य कर रहा हूँ। अपनी जानकारीमें मैं रइधका समग्र-साहित्य खोजकर उपलब्ध कर चुका था कि एक दिन सहसा ही नाहटाजीका पत्र मिला । उन्होंने पत्रमें अपने कलकत्ता प्रवासमें नाहर संग्रहालयके निरीक्षण एवं उसमें सुरक्षित रइधूके एक अलभ्य ग्रन्थ 'सावयचरिउ'के सुरक्षित रहनेकी चर्चा ही नहीं की बल्कि यह भी लिखा कि यदि यह ग्रन्थ मुझे न मिला हो तो सूचना पाते ही वे उसे संस्थाधिकारियोंसे निःशुल्क अध्ययनार्थ दिलवा देंगे। उनकी कृपासे वह ग्रन्थ मुझे शीघ्र ही मिल भी गया। अन्यथा, उस ग्रन्थरत्नका मिलना तो दूर रहा, मुझे उसकी गन्ध भी न मिल पाती। सन् १९६८-६९में जब मैं श्रद्धेय डॉ० ए० एन० उपाध्येके आदेशसे रइधू-ग्रन्थावलीके सम्पादन एवं अनुवादकी योजना तैयार कर रहा था, तब तक मुझे विश्वास था कि रइधका समग्र-साहित्य एवं महत्त्वपूर्ण प्रतियोंकी सूचनाएँ मैं एकत्र कर चुका हूँ। किन्तु अपनी अपूर्णताका ज्ञान मुशे पुनः उस समय हुआ जब श्री नाहटाजीने एक पत्र द्वारा मुझे सूचना दी कि 'पासणाहचरिउ' की एक सचित्र प्राचीनतम प्रति दिल्लीके श्वेताम्बर जैन शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है। उनकी कृपा एवं उसके मन्त्री आदरणीय श्री सुन्दरलाल जैनकी सज्जनता एवं कृपाके कारण मुझे उसकी एक फोटो काफी भी प्राप्त हो गई। आजकल मैं उसके बहुमुखी सदुपयोगके विषयमें विचार कर रहा हूँ ।। श्रद्धेय नाहटाजी हमारे युगके महान साहित्यकार, समीक्षक, प्राचीन जीर्ण-शीर्ण एवं अप्रकाशित ग्रंथोंके उद्धारक, कलापूर्ण सामग्रियोंके संरक्षक, साधनविहीन साहित्यकारों, शोधकर्ताओं एवं तत्त्व-जिज्ञासुओंके अकारण ही कल्याणमित्र हैं। वे स्वभावतः ही बिना किसी तर्कके विश्वास कर लेने वालोंमेंसे हैं। उनकी इस प्रवृत्तिने उन्हें कितनी बार कई उलझनोंमें फंसा दिया होगा, इसकी जानकारी तो नहीं मिल सकी, किन्तु उनकी इस निश्छल-उदारताके कारण कितने ही व्यक्ति लाभान्वित हुए होंगे, इसमें सन्देह नहीं श्रद्धेय नाहटाजीने किसी भी विश्वविद्यालयसे कोई उपाधि ग्रहण नहीं की किन्तु अपनी जन्मजात प्रतिभा, संस्कार एवं स्वाध्यायका बलपर उन्होंने विविध ज्ञान-विज्ञानका तुलनात्मक गहन अध्ययन किया है और आज उनके ज्ञानका धरातल इतना उच्च हो गया है कि पी-एच०, डी०, डी० लिट् जैसी उपाधियाँ उनके लिए तुच्छ हैं, वे उनका मापदण्ड नहीं बन सकतीं। यथार्थतः वे विश्वकोष (Encyclopeadia) का रूप धारण कर चके हैं। अतः उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्वके मूल्यांकनके लिए उन जैसे ही साधक, तपस्वी. कर्मठ एवं प्रतिभाकी साक्षात् मूर्तिकी आवश्यकता है। मुझ जैसे नगण्य व्यक्तिके पास उनके विषयमें कुछ भी लिखने अथवा कहने की योग्यताका सर्वथा अभाव है। हाँ, अपनी श्रद्धाञ्जलियां मौन-भाषामें व्यक्त कर मैं देवाधिदेवसे उनके स्वस्थ दीर्घायुष्यकी कामना करता हूँ कि वे शतायु हों और निरन्तर हमें अपने अनुभवोंसे लाभान्वित कराते हए उत्साहित एवं प्रेरित करते रहें। १७६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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