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लिखा जाय। वे उन शोध करनेवालोंमेंसे हैं जो खोजकर महत्त्वपूर्ण सामग्रीको तथ्यात्मक ढंगसे उपलब्ध कराने में अपना श्रम सार्थक समझते हैं, जिससे कि वह कभी अध्येताके अध्ययन और विश्लेषणकी आधारभूत सामग्री बन सके ?
६. श्री नाहटाजी स्नेही इतने हैं कि एक बार परिचय होनेपर चुम्बककी तरह आपको खींच लेंगे। ज्ञानके क्षेत्रमें वे सम्प्रदायवादसे दूर । यदि आपसे उनका परिचय है और वे आपकी बस्ती में आये हैं तो बिना पूर्व-सूचनाके आपके घर आ जायेंगे ? बात सम्भवतः ६६-६७ की है (ठीक तिथि श्री नाहटाजीको याद होगी) वे म. प्र. शासन साहित्य परिषद् द्वारा आयोजित 'राजस्थानीमें कृष्ण काव्य'पर व्याख्यान देनेके लिए जब इन्दौर आये तो मेरे घर भी आ गये। मैंने कहा, "नाहटा साहब आप ?"
बोले, "हाँ आपसे मिलना था।" मैंने कहा, "कुछ ग्रहण कीजिए।" बोले, "नहीं आज व्रत है । मेरे यहाँ कई रिस्तेदार हैं चिताकी बात नहीं।"
मैं चुप । श्री नाहटाकी शिक्षादीक्षा किसी विश्वविद्यालयमें नहीं हुई। वे जो कुछ हैं वह स्वप्ररणा, शोधकी निःस्वार्थ निष्ठा और अपनी सतत् साधनासे हैं। वे व्यवसायी होकर भी मनीषी हैं, गृहस्थ होकर भी तपस्वी हैं। कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर, अगरचन्दजी नाहटा न होते तो शोधका क्या हुआ होता ?
मैं हृदयसे कामना करता हूँ कि नाहटा साहब स्वस्थ और दीर्घजीवी हों और वे शोधकी कई मंजिलें पार करें। मैं यह उनकी नहीं हिन्दी शोधकार्यके दीर्घजीवनकी शुभकामना कर रहा हूँ क्योंकि श्री नाहटाजी जो कार्य कर रहे हैं, वह वस्तुतः शोधकी आधार-शिला रख रहे हैं । वे वह भूमि तैयार कर रहे हैं, जिसपर शोधका भावी भवन बनेगा। मुझे पूर्ण विश्वास है उसमें उनके व्यक्तित्वका निश्चित आभास होगा। मैं चाहता है कि वे स्वयं भी इसे देख सकें। इसलिए वे दीर्घजीवी हों।
विश्वकोषके लिए मेरे कोटिशः प्रणाम
प्रो० डॉ० राजाराम जैन सन् १९५४के दिसम्बरकी घटना है, तब मैं ज्ञानोदय (कलकत्ता)का सह-सम्पादक था। एक दिन एक लम्बे-चौड़े कुछ साँवले रंगका, राजस्थानी पद्धतिकी ऊँची पीली एवं कुछ अस्त-व्यस्त सी पगडी लगाये. घटनेके करीब धोती बाँधे और व्यापारी टाइपका लम्बा, पीतलके बटनवाला कोट पहिने हुए ए कार्यालयमें पधारे और मेरे विषयकी इंक्वायरी मुझसे ही करने लगे। उस समय मैं कलकत्तेके लिए एक नया-नया प्राणी ही था, अतः मुझे आश्चर्य लगा कि एक व्यापारी आखिर मुझे जानता कैसे है और क्यों मेरी खोज कर रहा है ? मैंने अपने विषयमें कुछ बताये बिना ही उनका नाम पूछ लिया और जब उन्होंने अपना नाम बताया तो मैं दंग रह गया, तत्काल ही आसन छोड़कर खड़ा हो गया और उन्हें सविनय प्रणाम किया। वे थे स्वनामधन्य अगरचन्दजी नाहटा, सरस्वतीके एक महान् वरद पुत्र ।
श्रद्धय नाहटाजीके नामसे मैं १९४६-४७से ही सुपरिचित था। 'सम्मेलन-पत्रिका', 'काशी नागरीप्रचारिणी सभा पत्रिका' प्रभृति पत्रिकाओंमें प्रकाशित उनके शोध-निबन्ध बड़े चावसे पढ़ा करता था। 'वीसलदेवरासो', 'पृथिवीराजरासो' प्रभृति प्राचीन हिन्दी ग्रन्थोंके प्रकाशनमें, उनके ऐतिहासिक कार्यों एवं मूल्य-निर्धारणमें उनका कितना जबर्दस्त हाथ रहा है, इसका मूल्यांकन एड़ी-चोटीके विद्वानोंने किया है और मुझे उनकी जानकारी थी। उनकी इन्हीं साधनाओंके कारण मैं उन्हें परोक्षतः अपना श्रद्धेय तथा साहित्य-जगतका गौरवपुत्र मान चुका था । किन्तु साक्षात्कार हुआ मानव-समुद्रकी उस महान् वैभवशाली कलकत्ता-नगरीमें जहाँ मझ
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १७५
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