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शोधयोगी श्री नाहटाजी
डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन १. आप हिन्दीकी कोई भी पत्र-पत्रिका उठाएँ, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, साहित्यिक हो या सामाजिक, उसमें श्री अगरचन्दजी नाहटाका लेख जरूर होगा। श्री नाहटाने यह दावा कभी नहीं किया कि वे बहुत बड़े विद्वान् या लिक्खाड़ हैं। परन्तु उन्होंने जो साहित्यसेवा की है, वह कई विद्वान् भी मिलकर नहीं कर सकते ।
२. मझोला कद, श्याम वर्ण, स्थूल गठा शरीर, आंखोंपर चश्मा और सिरपर बीकानेरी पगड़ी। उनके व्यक्तित्व और वेशभूषामें प्रान्तीय संस्कृति सुरक्षित है । यह है उनका रेखाचित्र। साठ वर्ष पूरे कर लेनेपर भी उनमें युवकोचित उत्साह और निष्ठा है ? सादगी और नम्रताकी मूर्ति । यदि आपको यह न बताया जाय कि यह नाहटा हैं तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि इन्होंने इतनी बड़ी साहित्यसेवा की होगी।
३. मुझे याद है कि १९५० के आसपाससे मैं उनके नामसे परिचित था। परन्तु प्रत्यक्ष भेंट ५-७ वर्ष पहले ही संभव हो सकी, वह भी लाडनूमें। वहाँ मैं पू० आचार्य श्री तुलसीके सान्निध्यमें हुई जैनसाहित्य गोष्ठीमें भाग लेने गया था। श्री नाहटा बहु उद्देश्यीय व्यक्ति हैं । वे खोजी, संग्राहक संपादक, लेखक और मार्गदर्शक सभी कुछ हैं ! न जाने कितनी संस्थाओंसे वे सम्बद्ध हैं। फिर भी लगता है कि वह सन्तुष्ट नहीं हैं। वे अपने आपमें एक बहुत बड़ी संस्था एवं मिशन हैं। दूसरोंके अनुसंधान कार्यमें इतनी सक्रिय दिलचस्पी, कि आप उन्हें लिख भर दीजिए, आप देखेंगे उनसे सारी सूचनाएँ खुद-ब-खुद चली आ रही हैं, जैसे वह टेलीप्रिंटर हों । जो जानकारी उनके पास नहीं है, वे बता देंगे कि वह कहाँसे मिल सकती है ?
४. मुझे यह कहने या लिखनेमें जरा भी संकोच नहीं कि श्री नाहटा ज्ञानके संग्रह और सूचनाओंके जीवित संदर्भ हैं। और हैं ज्ञानके सच्चे शोधयोगी और निस्पृह साधक! राजस्थानी भाषा, साहित्य और पुरातत्त्व तथा जनसाहित्यके क्षेत्रमें पिछले तीन चार दशकोंमें जो मौलिक कार्य हुआ है, इसका बहुत बड़ा श्रेय श्री नाहटाजीको है। अपने व्यावसायिक उत्तरदायित्वमें व्यस्त करते हुए भी इतना काम कर लेना उन्हींके बूतेकी बात है। श्री नाहटाके बारेमें यह कहना कठिन है कि वे क्या है ? वे क्या नहीं हैं ? वे शोधार्थी और मार्गदर्शक दोनों है। वे एक ऐसी संस्था हैं, जिसके भवनकी नींवकी पत्थरसे लेकर उसके कलकके कंगूरे वे स्वयं हैं । वे सिद्धि और साधना दोनों हैं !
५. खोज में भी उनका व्यावसायिक दृष्टिकोण बदस्तूर कायम है । शोधके क्षेत्रमें भी वे थोड़ी पूजीसे अधिकसे अधिक मुनाफा कमानेकी ताक में रहते हैं । यह उनको लोभवृत्तिका नहीं, अपितु सूझ-बूझका परिचायक है। बड़े-बड़े पुस्तक भंडारोंकी व्ययसाध्य (और श्रमसाध्य भी) छान-बीनके अतिरिक्त कभी-कभी वे गुदड़ीसे भी लाल ढूँढनेमें पीछे नहीं रहते । बंबईकी बात है, हम लोग एक जैन गोष्ठीमें भाग लेने के लिए सुखानन्द धर्मशालामें ठहरे थे। इतने में देखा, "श्री नाहटाजी 'पुस्तकों के अटालेके साथ उपस्थित हैं।" पूछनेपर पता चलाकि फुटपाथसे ये बहुत सी पुस्तकोंका लाटका लाट खरीदकर लाये हैं ? कहना न होगा उसमें कई महत्त्वपूर्ण और उपयोगी पुस्तकें थीं। उनका कहना था कि कभी-कभी गृहस्थ लोग पुरानी पोथियाँ कचरा समझकर कौड़ीके भाव बेंच देते हैं । परन्तु पुरानी पुस्तक छोटी हो या बड़ी, वह कभी-कभी इतिहास या परंपराकी टूटी हुई कड़ीको जोड़नेका महत्त्वपर्ण काम करती है !
उनकी बातोंसे ऐसा लगता है कि उनकी इच्छा यह नहीं है कि उनका नाम यशस्वी शोधविद्वानोंमें
१७४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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