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________________ श्री अगरचंद नाहटाको विगत २०-२२ वर्षोंसे जाननेका सौभाग्य मुझे भी प्राप्त है। इस बीच श्री नाहटाजीकी सजगताके अनेक प्रमाण और उनके अद्वेष-व्यवहारका परिचय अनेक बार मिलता रहा है । अपने प्रमाद और दीर्घसूत्री स्वभावके कारण मैं भले ही अपने व्यवहारमें पिछड़ गया हूँ, नाहटाजी कभी नहीं चूके। खोये हुए को खोज निकालनेकी शक्ति जैसी ग्रंथोंके सम्बन्धमें उनमें है उससे कम व्यक्तिके सम्बन्धमें नहीं है। उनका सहज सद्गुण है सद्भावपूर्णता । उनकी निर्लेपताका परिचय भी अनेक वार मुझे मिला है। नाहटाजीके सद्भावका ज्ञान मुझे पहली बार तब हुआ जब १९५३ में मेरे द्वारा संपादित 'बेलि क्रिसन . रुकमणी री'का पहला संस्करण उनके हाथमें पहुँचा। राजस्थानके एक पण्डितम्मन्य लेखकने जहाँ संपादनसे पूर्व मेरी जिज्ञासाओंका उत्तर न देकर मुझे विद्वानोंकी ओरसे निराश किया था, वहाँ नाहटाजीने पुस्तक पाते ही उसकी पंक्ति-पंक्तिको पढ़ा, अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की और मेरे प्रयत्नको सराहा । जिन स्थलोंसे उन्हें सन्तोष न हुआ उनपर भी वे साफ कहनेसे पीछे न रहे । साथ ही उन्होंने लिखा कि दूसरे संस्करणके समय वे चाहेंगे कि सचित्र प्रति प्रकाशित हो और उसके लिए मुझे वे संपूर्ण सामग्री उपलब्ध करा देंगे । नाहटाजीके इस पत्रने मुझे बल दिया और उनकी स्पष्टवादिताने उनसे मतभेद प्रकट करनेका साहस भी । मेरे और उनके बीच पत्र-व्यवहारका सूत्र जुड़ गया। तबसे 'बेलि'का तीसरा संस्करण निकलने तक वे बराबर उसके परिशोधन-परिवर्तनको लक्षित करते रहे और जबकि आलोचनाके क्षेत्रमें प्रवेश करनेवाले एकाध लेखकने 'बेलि'के प्रथम संस्करणसे आगे पढ़ने और जाननेसे वर ठान लिया और तीनों संस्करणोंके रहते पहलेसे ही जूझते रहे, श्री नाहटाजीने अपनी सजगताका परिचय सदैव नयेकी जानकारीसे दिया । मैं अपनी विवशताओंके कारण सचित्र 'बेलि' तो प्रकाशित न कर सका, किन्तु नाहटाजीके सद्भावसे वंचित भी कभी नहीं रहा। ऐसे निर्मत्सर और सहज स्नेही आलोचक कम ही हैं। नाहटाजो स्वयं एक संस्था हैं, व्यक्ति नहीं। काम करनेकी धुनके पक्के नाहटाजी काम करा लेनेकी विधि भी जानते हैं। वर्षों पहले नाहटाजीने मेरे पास एकके बाद एक कई हस्तलिखित ग्रंथोंकी प्रतिलिपियाँ स्वतः भेजी और मुझे उनपर लेख लिखनेको प्रेरित किया। आज भी वे मेरी गतिविधिका निरन्तर परिचय रख रहे हैं । नयी दिशाओंका संकेत उनसे कई बार प्राप्त होता है। नाहटाजी सच्चे अध्येता और गुणज्ञ हैं। हिन्दीमें ऐसे पाठकों की कमी है, जो अध्ययनके उपरान्त अपनी प्रतिक्रियासे लेखकोंको परिचित कराएँ-मैं भी उनमेंसे ही एक हैं। किन्तु मजाल है कि नाहटाजी कोई रचना देखें और लेखक उनकी प्रतिक्रियाके लाभसे वंचित रह जाय। कई बार उन्होंने मित्रोंके लेखोंको कर अपनी ओर से ही उन त्रटियों या तथ्योंपर नया प्रकाश डाला है जो लेखककी भूल बन गये हैं। सच, नाहटाजी साहित्यिक मशाल ले, जङ्गमतीर्थ हैं । व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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