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अनवरत साहित्योपासक
डॉ० लालचन्द जैन
हाजी की साहित्य साधनासे, उनकी सरल-सौम्य प्रकृतिसे, उनसे प्राप्त अतिशय स्नेह एवं शोध - क्षेत्र में दिशा-निर्देशनसे मैं सदैव प्रेरणा लेता रहा हूँ । मुझे गर्व है कि उनका कृतिकार, उनका मानव, उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व एक अमित आभा और अनूठी गरिमासे सम्पुटित है, अगणित व्यक्तियोंके लिए प्रेरणा- पुंज है, आदर्श राजपथ है ।
सन् १९६६ के ग्रीष्मावकाशने मुझे श्री नाहटाजीसे मिलनेका अवसर दिया । पत्र-व्यवहार सन् १९६४ से ही था क्योंकि मैं "जैन कवियोंके ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्योंका अध्ययन" विषयपर शोधकार्य कर रहा था । इससे पूर्व सन् १९५८-५९ में जब मैं एम० ए० का विद्यार्थी था, तब महाराजा कॉलेज जयपुर में नाहाजी का एक व्याख्यान हुआ था । उस समय उनके सम्बन्धमें मेरे मानस में जो चित्र बना, उसे कतिपय शब्दों में प्रस्तुत करता हूँ
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एक साथीने मुझसे कहाकि 'आज नाहटाजीका भाषण होगा । बड़े विद्वान् हैं वह । बहुत बड़े आदमी हैं वह ''आदि-आदि' । मैंने सोचाकि नाहटाजी अंग्रेजी पोशाकमें होंगे, अंग्रेजी बाल रखाए होंगे, अंग्रेजियत के रंग-ढंगमें होंगे । लेकिन जब उनके दर्शन हुए तो पाया कि उनके मुखपर घनी मूंछें हैं, सिरपर भारी फैंटा है, लम्बा कुरता है, दुलाँगी धोती है, पैरोंमें जूतियाँ हैं । मैं उनको आश्चर्यके साथ देखता रहा — देखता रहा; उनके सम्बन्धमें सोचता रहा- सोचता रहा । जब उनका भाषण सुना तो मेरे आश्चर्यका ठिकाना न रहा । दुरूह विषयको सरल विधिसे स्पष्ट करना उनके बायें हाथका खेल था। गहराईमें डूबकर प्रमाणोंको चुनचुनकर सामने रखने में उन्हें जैसे अलौकिक आनन्दकी अनुभूति हो रही थी । वह बोलते जा रहे थे और हम सुनने में तल्लीन थे। उस दिन मैंने उनको सुना था। उनसे व्यक्तिगत रूपसे मिल नहीं पाया था । मुझे दुःख है कि संकोच और लज्जाने मुझे मिलने नहीं दिया । गाँव का रहनेवाला, कठिनाइयोंमें पलने और पढ़नेवाला मैं ऐसे मेधावीसे मिलते हुए लजाता था ।
महाराजा कॉलेजमें उनके केवल दर्शन हुए, उनसे भेंट नहीं हुई । मैं इसे भेंट नहीं मानता क्योंकि भेंट में परस्पर विचार विनिमय होना चाहिए और वह था नहीं । असलमें भेंट हुई सन् १९६६के जून में । यह भेंट दो-चार घण्टेकी नहीं थी । मैं तो लगभग पन्द्रह दिन तक उनके संरक्षण में रहा, उन्हींके ग्रन्थालय में रहा, उन्हीं के यहाँ खाता-पीता रहा । मुझे याद है कि उन्होंने बड़ी मुश्किलसे चार-पाँच दिन अन्यत्र खाने दिया, वह भी इसलिये कि मैं बालकोंकी भाँति हठी बन गया था। मैं सोचता हूँ कि आज कितने हैं ऐसे, जो स्नेहके साथ ज्ञानका दान देते हों, सुपथ दर्शाते हों, अपने यहाँ रखते हों और अपनी गाँठसे खिलाते भी हों ।
लम्बी आयु पाकर,
अब देखिये, उनका साधक रूप । उनका यह रूप तो और भी हृदयस्पर्शी है । सचमुच वे सरस्वती के पुत्र हैं । मौन तपस्या में उनका अखण्ड विश्वास है । उनका अपना कोई संसार है, तो वह है ग्रन्थोंका संसार यही संसार उनके कर्मका, तपका, आनन्दका, जीवन और जागरणका संसार है । हस्तलिखित ग्रन्थों और पुस्तकों के ढेर के मध्य आसन लगाकर बैठे हुए उनकी छवि अद्भुत लगती है । उस छविमें एक दिव्य आकर्षण होता है और उसके द्वारा एक अनूठे आदर्शकी प्रतिष्ठा होती है। ढलती हुई अवस्था में पहुँचकर कोई व्यक्ति कितने ही घण्टे कागजके पत्रोंसे अपनी आँखोंको चिपटाये रखे, अपना दिल और दिमाग उन्हीं के लिए समर्पित कर दे, उसे हम क्या कहेंगे ? प्रश्न करनेपर कोई व्यक्ति एकके पश्चात् दूसरेका यथोचित उत्तर देता चले, रुकने का नाम न ले और इस प्रकार उसके वचनोंसे जिज्ञासुओंकी जिज्ञासा शान्त होती चली जाये, उसे हम क्या कहेंगे ? ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध में सामान्यतः दो धारणाएं बनेंगी । १६६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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