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________________ प्रथम यह कि वह पूरा और सच्चा साहित्यसेवी है, उसका जीवन साहित्यकी सेवाके लिए है। द्वितीय यह कि वह प्रतिभावान् मनीषी है, प्रत्युत्पन्नमति है और उसकी प्रतिभा एवं क्षमता 'स्व' के उपयोगके लिए नहीं, 'पर' के उपयोगके लिए है। नाहटाजीके समीप रहते हुए मैंने यह अनुभव किया कि साहित्यिक क्षेत्रमें उनकी दृष्टि बिल्कूल अर्थपरक नहीं है। इस काममें अर्थसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं। यह दूसरी बात है कि ईश्वरने उन्हें अर्थसम्पन्नता दे रखी है, फिर भी उनकी निर्लोभिता, उनका त्याग, उनकी उदारता स्पृहणीय है । नहीं तो इस अर्थयुगमें लोग अर्थके लिए न जाने क्या-क्या करते हैं, कहाँ-कहाँ दौड़ते हैं और इतना ही नहीं जान देने-लेनेको उतारू हो जाते हैं। इसके विपरीत नाहटाजी हैं, जो ग्रन्थोंके संग्रहपर, शोधार्थियोंपर , ग्रन्थालय देखने जाने वालोंपर उलटा खर्च करते हैं । इस प्रकार वह आर्थिक हानि और कष्ट सहकर भी अमित संतोषका अनुभव करते हैं, मानों साहित्यकी उपासना उनके जीवनका एक महत्त्वपूर्ण अंग है, आत्माकी भूख-प्यासकी शान्तिका एक सबल साधन है। उनका ऐसा साधक-रूप न केवल लुभावना है, अपितू निराला भी है। उपर्युक्त संदर्भ में एक बात और जोड़ देनी चाहिए। यह माना कि नाहटाजीके पास बी० ए०, एम० ए. की उपाधि नहीं है। यहाँ तक कि उनके पास मैट्रिक या मिडिल पासका प्रमाणपत्र भी नहीं है । स्वयं उन्हींके शब्दोंमें-"मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा हूँ। मैंने छट्ठीं कक्षा भी पास नहीं की। व्यवस्थित अध्ययन चला ही नहीं ......""।" इन शब्दोंमें उनकी सरलता, स्पष्टता एवं निश्छलता छिपी हुई है। मेरी दृष्टिमें अभावोंको खोलकर रख देनेसे व्यक्ति महान् बनता है । फिर मैं इसे अभावकी संज्ञा भी कैसे हूँ ? यह अभाव है कहाँ ? मात्र बड़ी-बड़ी उपाधियाँ धारण करनेसे व्यक्ति महान् नहीं बनता। वह महान् बनता है लगन और संकल्पके साथ निरन्तर कर्म करनेसे, आदर्श जीवन व्यतीत करनेसे, जीवनको जीवनकी तरह भोगनेसे । नाहटाजी इसके उदाहरण हैं । पूर्ण जिज्ञासा, रुचि एवं तन्मयताके साथ लगातार ग्रन्थोंका अध्ययन-अनुशीलन करनेसे उनके ज्ञानकी परिधि कहाँ तक बढ़ गई, यह कहना कठिन है । उनके प्राणोंका कर्ममय स्पन्दन सबके लिए प्रेरणाका स्रोत है । निश्चय ही कर्ममें रत मनुष्यकी शक्ति निस्सीम हो जाती है। उसके लिए कठिनसे कठिन काम सरलसे सरल हो जाता है, पत्थर फूल बन जाता है। वस्तुतः सतत साधना ऐसी ही होती है। नाहटाजी अपनी अनवरत साधनासे ही विकासकी इस अवस्थाको प्राप्त हुए हैं। कहना न होगा कि साधनाने उनको बहुत ऊँचा चढ़ा दिया है। इस ऊँचाईसे मेरा अभिप्राय यह है कि अध्ययनकी गहराईने ज्ञानके क्षेत्रमें उनको गरिमामयी बना दिया है। मेरे लिए यह विस्मयकी बात है कि कितने ही जैन कथानक उनकी दृष्टि में घूमते रहते हैं। उन कथानकोंके मर्मसे वह भली-भाँति परिचित हैं। मैंने जब अपने ऐतिहासिक नाटक 'अमर सुभाष'की प्रति उनको भेटमें दी तो उसे देखकर वह बोले "जैन कथानकोंको लेकर जब आपकी इच्छा नाटक लिखनेकी हो तो समय लेकर इधर आइये। मैं आपको एक-से-एक ऐसे अप्रतिम कथानक दूंगा, जिनके आधारपर अच्छे नाटकोंका प्रणयन किया जा सकता मझे खेद है कि तबसे अब तक मैं बीकानेर न जा सका, जबकि वहाँ जानेकी चाह अब भी ज्यों-कीत्यों बनी हुई है । सोचता हूँ कि जब मेरा लिखनेका काम बराबर चल रहा है तो वह संयोग भी आयेगा, जब नाहटाजीकी भावनाके अनुरूप इसी निमित्त मैं उनके पास पहुँचूँगा, उनको कष्ट देकर उनके साहचर्यसे लाभ उठाऊँगा। नाहटाजीके धैर्य एवं गांभीर्यकी चर्चा और करूँगा। इस संदर्भकी एक घटना मेरे सम्मुख चित्रवत है। मेरे बीकानेर के प्रवासकालमें ही नाहटाजीके यहाँ दस-पन्द्रह हजार या इससे अधिक राशिके आभूषणादि व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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