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अज्ञात नये कवियों, लेखकों तथा उनकी कृतियोंको खोजना और उनपर निबन्ध लिखना नाहटाजीके जीवनका अनिवार्य अंग और मनका व्यसन बन चुका है। वे जिस तन्मयतासे लिखते हैं उसी आत्मीयतासे दूसरे लोगोंको लिखनेके लिए प्रोत्साहित भी करते रहते हैं। वे जब किसी विद्वानको पत्र लिखते हैं तो एक ही पत्रमें कितने ही कार्योंकी जानकारी माँग लेते हैं। उत्तरदाताके प्रमादसे पूछे गए एक भी प्रश्नका उत्तर छूट गया तो वे तुरन्त पुनः पत्र लिखकर पूछते हैं ।
मैं राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनीमें शाहपुर राज्यका ऐतिहासिक रेकर्ड लाया था । नाहटाजीको जब यह सूचना मिली तो वे बहुत प्रसन्न हुए और तत्काल मुझे पत्र लिखकर कहा-"शाहपुराकी तरह राजस्थानके दूसरे ठिकानोंका संग्रह भी आपको चौपासनीमें ले आना चाहिए। हमारी यह निधि नष्ट हो जायेगी। आपका राजस्थानके जागीरदारों-सरदारोंसे अच्छा परिचय है।"
उन बातोंको चार साल बीत गए । अब भी वे महीने में एक बार मुझे वह बात लिख ही देते हैं । इस प्रकार ग्रन्थोंको नष्ट होनेसे बचानेके लिए वे सतत प्रयत्नशील रहते हैं। पिछले ४५ वर्षों में नाहटाजीने तीन-चार हजारके लगभग शोध निबन्ध लिखे हैं और ३५ हजार हस्तलिखित ग्रन्थोंका संग्रह किया है। अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकोंका सम्पादन किया है।
यद्यपि साहित्य-जगत्में नाहटाजीको जैन-साहित्यके अधिकारी विद्वान् के रूपमें अधिकतर पहचाना जाता रहा है, परन्तु वस्तुतः वे प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और गुजरातीके भी अध्येता विद्वान् हैं । अज्ञात ग्रन्थों और साहित्यकारोंके परिचयकी दष्टिसे तो वे एक चलते-फिरते पस्तकालय कहे जा सकते हैं। राजस्थानको अपने इस सरस्वतीपुत्र पर गर्व है और राजस्थान भारतीको उनसे बहत आशाएँ हैं।
साहित्य तपस्वी श्री नाहटाजी
डा० मनोहर शर्मा वैसे मेरा सम्पर्क तो सुप्रसिद्ध साहित्य-संशोधक श्री अगरचंदजी नाहटाके साथ १९३७ से ही बना हआ है परन्तु उनसे साक्षात्कार सर्बप्रथम सन् १९४७में ही हो सका और वह भी एक नाटकीय ढंगसे । उन दिनों मैं जयपुरमें बिसाऊ-हाउसमें रहता था और ठाकुर साहबके बालकोंका 'गार्डियन-ट्यूटर' था।
एक दिन लगभग ग्यारह बजेका समय था और मैं किसी कार्यवश डेरे (बिसाऊ-हाउस) के फाटकसे बाहर निकला । मैं दीवारके पास लघशंका करने के लिए बैठा कि एक लम्बा-चौड़ा व्यक्ति, धोती और लम्बा. सफेद कोट धारण किए हुए तथा बीकानेरकी ओसवाली शैलीकी पगडी बाँधे हए मेरे पास ही आकर खड़ा हो गया। वह व्यक्ति मेरे उठनेकी प्रतीक्षामें था और जब मैं खडा हुआ तो उसने डेरे में रहनेवाले मेरे ही नामके व्यक्तिसे मिलनेकी इच्छा प्रकट की। मैंने आश्चर्यके साथ उसे ऊपरसे नीचे तक गहरी नजरसे देखा परन्तु सम्पूर्ण स्मतिको समेटने पर भी उसे पहिचान न पाया। ऐसी स्थिति में मैंने कुछ मुसकराकर उसका शुभ नाम पूछा तो तत्काल उसके मुखसे निकला-“म्हारो नांव अगरचंद है।" इसी क्रममें मैंने भी तत्काल उत्तर दिया कि जिस व्यक्तिसे आप मिलना चाहते है, वह मैं स्वयं ही हैं । इतना कहना था कि श्री नाहटाजी
१६२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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