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ने मुझे दोनों हाथोंसे छातीसे लगाकर ऊँचा उठा लिया । साहित्य-क्षेत्रमें इतने लम्बे समयसे कार्य करते रहनेपर भी ऐसा स्नेह-सम्मेलन प्राप्त करनेका मुझे दूसरा कोई अवसर प्राप्त नहीं हो सका है।
फिर मैं श्री नाहटाजी को लेकर अपने कमरे में आ गया और बहुत देर तक साहित्यिक-विषयोंपर वार्तालाप होता रहा । श्री नाहटाजी की यह विशेषता है कि जब कभी वे किसी नगरमें जाते है तो वहांके सभी साहित्य-सेवियोंसे मिलना, उनकी प्रगतिका परिचय प्राप्त करना, उन्हें प्रेरणा देना वे अपना एक आवश्यक कर्तव्य समझते हैं।
[ २] श्री नाहटाजीके साथ मेरी आत्मीयता बढ़ती ही गई । मैं जब कभी किसी कार्यसे बीकानेर आता तो उन्हींके श्री अभयजैन ग्रंथालयमें डेरा डालता और लगभग सारा ही समय विविध ग्रंथोंके अवलोकन या टिप्पणी-लेखनमें लगाता। एक दिन मैं अकेला पुस्तकालयमें बैठा कुछ लिख रहा था कि पोस्टमैनने श्री नाहटाजीके नामकी ढेर-सी डाक लाकर वहाँ रख दी। यह सोचकर कि श्रीनाहटाजीकी डाक तो सम्पूर्ण रूपसे साहित्यिक ही होगी, मैं उसे देखने लगा।
एक कार्ड बम्बईसे आया था। उसमें लिखा था-"आपका पत्र मिला परन्तु उसमेंसे कुछ भी नहीं पढ़ा जा सका । बस, इससे अधिक आपको उत्तरमें क्या लिखा जावे ?"
दूसरे कार्ड में इस प्रकार लिखा था-"आपका पत्र प्राप्त हुआ। उसमें से जो कुछ पढ़ा जा सका, उसका उत्तर नीचे लिखे अनुसार है।"
- इसके बाद मैंने कोई पत्र नहीं देखा और डाकमें आए पत्र-पत्रिका आदि खोलकर पढ़ने लगा। थोड़ी देर बाद श्री नाहटाजी अपनी हवेलीसे पुस्तकालयमें आए तो मैंने उनके सामने उपर्युक्त पत्रोंकी चर्चा हँसते हुए की। वे सरल-भावसे बोले-"बात ठीक है। म्हारी लिखावट इसी ई है। पण पत्ररो जबाब देवणो जरूरी समझ'र हूं कई पत्र हाथ सूई लिख दूं । आज आप तकलीफ करो।" . मैं बड़े उत्साहके साथ उनके पत्र लिखनेके लिए तैयार हो गया। श्री नाहटाजी बोलते थे और मैं लिखता था । एकके बाद दूसरा, इस प्रकार लगभग २० पत्र उन्होंने लिखवाए । उनमें कई कार्ड और कई लिफाफे थे । मेरी तो कमर दर्द करने लगी परन्तु फिर भी मैं पत्र-लेखनका यह कार्य बीच में न छोड़ सका। जब सभी पत्रोंके उत्तर दिए जा चुके, तब चैन मिला। फिर उस दिन मैं कोई काम नहीं कर सका और भाई मोहनलालजी पुरोहितके घर जाकर, उनसे जैसलमेरी गीत सुनकर ही मैंने अपना दिमाग फिरसे ताजा किया।
इससे प्रकट होता है कि श्री नाहटाजी कितने व्यस्त रहते है और पत्र-व्यवहारमें कितने सचेष्ट हैं। वे चाहते हैं कि साहित्यके लिए जितना श्रम वे स्वयं करते हैं उतनी ही मेहनत अन्य साहित्यिक-बंधुओंको भी करनी चाहिए।
बीकानेरकी 'श्री सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीच्यूट'।राजस्थान भरमें सबसे पुरानी साहित्यिक संस्था है। इस संस्थाके द्वारा नवम्बर सन १९५९में 'पथ्वीराज जयन्ती'का आयोजन किया गया और समारोहकी अध्यक्षता करनेके लिए मुझे निमंत्रित किया गया । इसी अवसरपर संस्था द्वारा स्थापित 'पृथ्वीराज आसन'से विशेष भाषण भी देना था। इन्स्टीच्यूटके डायरेक्टर श्री नाहटाजी थे । मैं बीकानेर आया और अपनी आदतके अनुसार इन्स्टीच्यूटका अतिथि न बनकर श्री नाहटाजी का ही मेहमान बना । समारोहका सब काम यथाविधि सम्पन्न हुआ। एक रात मैं मित्रोंसे मिलकर लगभग ११ बजे श्री अभयजैन ग्रंथालयमें पहुँचा । मैंने वहाँ
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण :१६३
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