SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थ देखने चले गये हैं। डॉ. भानावत और मैं एक क्षण मौन मन ही मन उनकी समयकी पाबंदी पर विचार करते रहे और फिर आतिथेयको बिना कोई सूचना दिये लौट गए। ग्यारह बजे महाराणा कुंभा शताब्दिक समारोह स्थल पर जब वे पहँचे तो सर्वप्रथम हमारे पास आये और कहा-"आपकी प्रतीक्षा की।" आप जब नियत समय पर नहीं पहुँचे तो में हस्तलिखित ग्रन्थोंका संग्रह देखने चला गया। चार घंटेमें मैंने अज्ञात ७ ग्रन्थ खोज निकाले ।" उसी समय मुझे सहसा 'स्वाध्यायान्मा प्रमद' का मन्त्र याद हो आया और लगा कि स्वाध्यायसे कभी प्रमाद मत करो का रहस्य नाहटाजीने समझा है । सच तो यह कि नाहटाजी 'स्वाध्यायान्मा प्रमद' के स्वयं मूत्तिमा दूसरा प्रसंग है बीकानेरका। मैं राजस्थान शोध संस्थान चौपासनीकी त्रैमासिक पत्रिका 'परम्परा के 'राजस्थानी रूक्के परवाने' अंककी सामग्रीका चयन करनेके लिए पुरालेखा विभाग, बीकानेर गया था। मैंने नाहटाजीको जोधपुरसे प्रस्थान करनेके दो दिन पूर्व मेरी बीकानेर यात्राकी सूचना भेजी थी। बीकानेर में मैंने ग्रीन होटलमें अपना सामान रखा और पुरालेखा विभागकी राह पकड़ी। लेखा विभागमें तब स्व. नाथ रामजी खडगावत निदेशक थे। वहाँ पहुँचते ही मैंने उनके कार्यालयमें प्रवेश किया और जोधपुरसे बीकानेर आनेका अपना मन्तव्य प्रकट किया। खड़गावतजीने मेरी ओर एक सरसरी नजरसे देखते हुए तपाकसे उत्तर दिया-"मैं आपको पहिचानता नहीं। राजस्थान पाकिस्तानके सीमान्तका प्रान्त है । पाकिस्तानके एक गुप्तचरने राजस्थानके प्राचीन दस्तावेजोंकी प्रतिलिपियाँ प्राप्त करनेकी कोशिश की थी तबसे हम किसी अपरिचितको ऐसी सुविधा प्रदान नहीं करते ।" मैं एक क्षण स्तब्ध रहा। फिर उनसे कहा बीकानेरमें प्रो० विद्याधरजी शास्त्री, प्रो० नरोत्तमदासजी स्वामी और श्री अगरचन्दजी नाटहासे मेरा परिचय है। इनमेंसे जिसके लिए भी आप कहें, मैं अपना पहिचान पत्र ले आऊँ। नाहटाजीका नाम सुनकर उन्होंने फिर मेरी और देखा और कहा-"आप नाहटाजीको कैसे जानते हैं ?" मैंने विनम्रतापूर्वक कहा-“मैं पिछले एक दश कसे कुछ लिखता-पढ़ता रहा हूँ। इसलिए नाहटाजीसे मेरा परिचय है।" तब तक उन्होंने मेरा नाम नहीं पूछा था। मैंने अपना नाम बताया तो वे झट पलंगसे उठे और मुझसे हाथ मिलाते हुए बोले-"आपने मुझे पहिले अपना नाम क्यों नहीं बताया। मैंने आपका नाम खूब सुना है। कल रात्रिको ही आकाशवाणी जयपुरसे आपकी वार्ता-राजस्थानी ख्यातोंमें सांस्कृतिक जीवनकी झलक' सुनी है । आपका आलेख मुझे पसन्द आया।" पुरालेखा विभागके रियासती पत्रालयका अवलोकन कर मैं सायंकाल होटलमें आया और भोजन करके अभय जैन ग्रन्थालय पहुँचा । नाहटाजीके पास ६०-७० पत्र-पत्रिकाएँ बिखरी पड़ी थीं। मुझे देखते ही बोले, "अभी शाम की गाड़ीसे आए हैं ?" मैंने कहा, "मैं तो सुबह ही आ गया था और आ विभाग चला गया।" "आपने अपना सामना कहाँ रखा ?" मैंने कहा, "होटल में ।" होटलका नाम सुनते ही नाहटाजीने तत्काल मनमें कुछ पीड़ा-सी महसूस करते हए कहा-"वहाँ क्यों रखा ? क्या यहाँ आपका घर नहीं था? अभी चलो और सामान यहाँ ले आओ।" मैंने कई प्रकारके तर्क दिये परन्तु मेरी एक भी दलील उनको प्रभावित नहीं कर सको। और सुबह मुझे होटल छोड़कर उनके ग्रन्थागारमें ही बिस्तर लगाना पड़ा। मैं चार दिन उनके यहाँ रहा और उनके साथ ही भोजन किया । वहाँ भी मैंने उनके प्रत्येक कार्यमें नियमितता देखी। नियत समय पर प्रातः मन्दिर जाना, फिर आगत पत्रोंके उत्तर देना, आगन्तुक शोध विद्यार्थियोंसे उनके शोध-विषय पर वार्तालाप करना और उनके उपयोगकी सामग्रीकी सूचना देना उनका प्रतिदिनका कार्य था। व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy