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________________ 'स्वाध्यायान्मा प्रमद' के मूर्तस्वरूप नाहटाजी श्री सौभाग्यसिंह शेखावत राजस्थानके उच्चकोटिके वयोवृद्ध विद्वान् श्री अगरचन्दजी नाहटा बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं । प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी भाषाओंपर आपका समान रूपसे अधिकार है । प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी लिपियों, शिलाखण्डोंपर उत्कीर्ण लेखों, ताम्रपत्रों और पत्र - फरमानोंको खोज निकालने तथा पढ़ने में आप विचक्षण मतिके व्यक्ति हैं। राजस्थान, गुजरात, मालवा और हरियाणाके जन-संकुल नगरोंकी संकीर्ण गलियों में स्थित अंधेरे तलगृहोंमें जीवनके अन्तिम श्वास गिनते तथा दूर-दूरके कस्बोंमें पंसरियों की हाटोंमें कौड़ीके मोल बिकते ग्रंथ-रत्नोंके उद्धारकके रूपमें नाहटाजी चिर-परिचित मनीषा हैं । अन्वेषण और लेखनमें अहोरात्र संलग्न रहनेकी नाहटाजी में अद्वितीय लगन है । मेरा उनसे साक्षात्कार सर्वप्रथम कलकत्तासे प्रकाशित 'राजस्थान' और 'राजस्थानीय' शोध पत्रिकाओं के माध्यमसे हुआ । यद्यपि उनके दर्शनका अवसर तो 'राजस्थान साहित्य एकादमी' की स्थापना बाद एकादमीके उद्घाटन समारोहपर उदयपुरमें ही मिला । परन्तु उनकी साहित्य साधनासे इससे पूर्व ही परिचित हो चुका था । तरुणाई, प्रौढ़ता और वृद्धता तीनों अवस्थाओं में वे एकनिष्ठ लगनसे साहित्य - साधना में रत रहते आ रहे हैं । समयका सदुपयोग करनेवाला ऐसा व्यक्ति मैंने अपने जीवनमें अन्य नहीं देखा । एकादमीके उद्घाटनके बाद तो उनसे मेरा सम्पर्क घनिष्ठ होता गया । एकादमीकी सरस्वती सभा सदस्यके नाते परस्पर मिलने और साथ-साथ बैठकों में भाग लेने तथा साहित्यिक योजनाओं पर विचार-विमर्श करनेके कारण उनकी स्पष्ट और बेलाग विचारधारासे मैं प्रभावित हुआ । विवादास्पद प्रसंगोंमें भी वे शान्त, धीर गम्भीर निर्णय लेते हैं । अपरिचितसे परिचय बढ़ाकर उसको आत्मोय बनाना नाहटाजीको प्रकृतिका सहज अंग है । यही नहीं श्री नाहटाजी कभी किसीसे राग-द्वेष और दुराव - छिपाव नहीं रखते । उनके संग्रहालय में जो पुस्तक - निधि है, उसका उपयोग कोई भी साहित्यकार चाहे जब कर सकता है— कोई बन्धन नहीं, कोई बाधा नहीं और कोई नियम नहीं । मैं बीकानेर में उनसे जब कभी भी मिला प्राचीन ग्रन्थोंके पत्रोंको टटोलते, ग्रन्थ परिचय लिखते और शोध विद्वानोंके पत्रोंका उत्तर देते ही उनको पाया । नाहटाजी में अन्तरंग और बहिरंग दोनोंमें सदैव एकरंग और एकरस व्यक्तित्व है । अपने अभय जैन ग्रन्थागार पुस्तकालय में और प्रवासकालीन साहित्यिक सभा-सम्मेलनोंमें उनके आचारण और व्यवहारमें कभी कोई अन्तर मैंने नहीं देखा । मुझे उनके साथ के दो प्रसंगोंका स्मरण आता है। महाराणा कुंभा चतुर्थ शताब्दी समारोहका प्रथम त्रिदिवसीय अधिवेशन उदयपुरमें हो रहा था। महाराणा भगवतसिंहजीने उसका उद्घाटन किया था और नाहटाजीने उसकी अध्यक्षता की थी । उस अधिवेशन में 'महाराणा कुंभा और उनके डिंगल गीत' शीर्षक एक निबन्ध मैंने भी पढ़ा था । सम्मेलनकी द्वितीय दिनकी कार्यवाही के सम्पन्न होनेपर विद्वानोंने नाहटाजीको घेर लिया । मैं उनसे शोध पत्रिकाके लिए निबंधके विषयमें बात करना चाहता था परन्तु वे अत्यधिक व्यस्त थे । तब मैंने उनसे दूसरे दिन मिलने का समय चाहा । उन्होंने अगले दिन प्रातः सात बजे मिलना तय किया । मैं डॉ० महेन्द्र भानावतको साथ लेकर सुबह उनके प्रवासकालीन आवास स्थानपर पहुँचा तो पता चला कि वे सात बजकर पांच मिनट तक हमारी प्रतीक्षा करते रहे और फिर एक स्थान पर हस्तलिखित १६० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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