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मिला । आप शरीरपर धोती पहने हुए थे। वेश आपका बिल्कुल सादा था। हस्तलिखित पुस्तकोंके आपके चारों ओर ढेर लगे हुए थे। आप नीचा शिर किये हुए उन हस्तलिखित पुस्तकोंमें कुछ न कुछ पढ़ते ही रहते हैं। कल्पना ही नहीं की जा सकती कि आप ही श्री नाहटाजी होंगे। मैं जब आपसे मिला तो इन महापण्डितने प्रेम एवं ममतापूर्ण मेरा सत्कार किया। मुझे आप एक प्रेमी, सज्जन एवं उद्यमशील वयोवृद्ध पण्डित प्रतीत हए।"
इस प्रकारके उद्यमशील, प्रेमी, कार्यनिष्ठ, सात्विक एवं धर्मशील संशोधकको धर्मशास्त्र, मध्यकालीन मारू-भाषा साहित्य और लोक-संस्कृतिके समुद्धारार्थ परम कृपालु प्रभु पूरे सौ शरदका आयुष्य प्रदान करें। यही मेरी ईश-प्रार्थना है।
मरु-भूमिमें विकसित यह पुष्प स्थायी रूपसे महकता रहे और तरोताजा बना रहे । यही शुभेच्छा है।
सरस्वती के अनन्य सेवक
सिद्धान्ताचार्य पं० के० भुजबली शास्त्री सरस्वतीके अनन्य सेवक श्री अगरचन्दजी नाहटाका और मेरा परिचय एवं सम्बन्ध लगभग ३५ वर्षोंसे है। यह सम्बन्ध सर्वप्रथम शोध-सम्बन्धी श्रेष्ठ त्रैमासिक पत्र "जैनसिद्धान्तभास्कर" से हुआ। उन दिनों, मैं आरा (बिहार) के सुप्रसिद्ध "जैनसिद्धान्तभवन में पुस्तकालयाध्यक्ष पदपर काम करता रहा । इसी संस्थाकी ओरसे उपयुक्त "जैनसिद्धान्तभास्कर" प्रकाशित होता रहा । इस त्रैमासिक पत्रका कुल कार्य मुझे ही देखना पड़ता था। "जैनसिद्धान्तभास्कर"में नाहटाजी भी लिखते रहे । अतः इस सम्बन्धमें आपके साथ मैं बराबर पत्र व्यवहार करता रहा।
सन् १९३६ में, एक आवश्यक कार्यवश मुझे जयपुर जाना पड़ा। वहाँपर मैं एक मास तक ठहरा रहा । इसी बीचमें मैं उदयपुर, जोधपुर और बीकानेर आदि राजस्थानके प्रमुख नगरोंको देखनेको गया । जोधपुरसे बीकानेर सुबह पहुँचा। उस समय मैं रेलवे स्टेशनसे सीधा राजकीय धर्मशालामें जाकर ठहरा । डॉ. बीकानेर मेरे पचनेकी सचना मैंने नाहटाजीको पहले ही दे दी थी। करीब सबह ९ बजे. ना मुझे देखने वास्ते धर्मशालामें पहुंचे। वहाँपर थोड़ी देर इधर-उधरकी बातें हुईं। फिर नाहटाजी साग्रह मुझे अपने घरपर लिवा ले गये। वहाँपर उन्होंने ३-४ रोज तक, सानन्द मुझे अपने आतिथ्यमें रखा और वहाँके राजमहलसे लेकर राजकीय, शैक्षणिक, धार्मिक और सामाजिक सभा संस्थाओंको दिखलाकर, उन संस्थाओंका परिचय कराया । नाहटाजी मिलनसार व्यक्ति हैं । इस प्रवासमें मुझे कई बातोंका अनुभव हुआ। उन अनुभवोंमें राजस्थानमें पानीके अभावका अनुभव भी एक था । नाहटाजी से मेरा प्रत्यक्ष परिचय इसी बार हुआ।
. यद्यपि नाहटाजी एक व्यापारी परिवारमें जन्म लिये हैं, परंतु आपका सारा समय सरस्वती-सेवामें ही व्यतीत होता है। प्रायः प्रत्येक जैन पत्र-पत्रिकाओंमें बराबर मैं आपका लेख देख रहा हूँ। इसी प्रकार कतिपय जैनेतर पत्रोंमें भी। मुझे आश्चर्य होता है कि नाहटाजी इतने लेख कैसे लिख लेते हैं । १५० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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