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वहींसे दौड़कर अहमदाबाद पहुंचा । दिनभर कार्यालय में बैठकर छपे हुए पृष्ठोंका प्रूफ देख-देखकर शीघ्र ही उन्हें छाप देने हेतु देता रहा । परिणामस्वरूप यह पुस्तक एक पारिवारिक समान वयोवृद्ध, सन्मित्र, ज्ञानवान, संशोधक एवं पीठ पण्डितकी प्रस्तावनाके बिना ही मुद्रित हो गई ।
श्री नाहटाजी उदार निकले और मैं कैसा ? इसपर विचार करते ही कमकमाटी छूट पड़ती है । वे दानश्री निकले और मैं नादान ! वे बरस गये किन्तु मैं उस वर्षाको झेल नहीं सका ! 'चन्दर उग्यू चालवु' उनकी बिना प्रस्तावनाके ही प्रकाशित कर दिया गया । किन्तु मुझपर उन (श्री नाहटाजी ) का एक बहुत बड़ा ऋण कि यह ग्रन्थ आपको अर्पण न करनेसे मुझे थकावट एवं उत्साहहीनता प्रतीत होने लगी ।
इस घटना के बाद भी हमारे मध्य पत्र-व्यवहार चलता ही रहा । आपके हस्ताक्षर 'अति सुवाच्य' होनेके कारण एकाध बार मुझे स्पष्ट रूपसे लिख देना पड़ा कि आप तो दुस्तर नहीं किन्तु आपके अक्षर मुझे दुस्तर प्रतीत होते हैं । इसके बादसे ही श्री नाहटाजीके पत्र या तो टंकित किये हुए या किसी अन्य द्वारा लिखाये गये रूपमें मिलने लग गये ।
ई० सन् १९६८ का वर्ष, राजस्थान साहित्य एकादमीका एवार्ड मिला तब मेरे मन में विचार उठा कि यह श्री नाहटाजीको मिलेगा । मैं ध्रांगध्रासे उदयपुर गया । कार्यक्रमके दिन संध्या समय मैंने श्री नाहटाजीके दर्शन किये । प्रौढ़ एवं वृद्धजनकी कल्पना तो किये हुए था ही। गुणज्ञता एवं धैर्य तो आपके लेखोंसे ज्ञात होता था किन्तु आपकी सादगीकी मुझे कल्पना ही नहीं थी । घुटनोंके ऊपर तककी लाँग लगाई हुई धोती, मलमलका कुरता पहने हुए और ऊँची मारवाड़ी पागको धारण किये हुए एवं कपालपर केशरका तिलक तथा पाँवों में देशी जूते पहने हुए, श्यामवर्णी काया और भरावदार शरीर ! इस तनमें लोक-साहित्यालंकारका प्रखर व्यक्तित्व दृष्टिगत हुआ । संशोधककी तीव्र एवं तीक्ष्ण दृष्टि प्रतीत हुई । महामानवता, प्रेम, उत्साह और सरलता आपमें टपक रही थी । वाणी में माधुर्य, वणिक् धर्मकी साक्षी पूर्ण करनेवाले नजर आये । ऐसे साधु, शाह - सौदागर और संशोधक के दर्शन कर मैं पावन हुआ और कितनी ही बातें कीं । हाँ, यह तो कहना भूल ही गया कि आपने बीचमें एक बार अपने संशोधन - लेखोंकी एक पुस्तिका Monogra मुझे भेजी थी, स्मरण है । उसे आज भी सुरक्षित रखे हुए हूँ । वह मेरे लिये एक सन्दर्भ - सूची के समान है ।
सन् ६९ से सौराष्ट्र विश्वविद्यालय में गुजराती लोक साहित्यके रीडर पदपर मैं आमन्त्रित किया गया, तभी से हमारे मध्य इस कार्यार्थ पत्र-व्यवहारकी वृद्धि हुई है । 'अंगदविष्टि' की हस्तलिखित प्रतिकी खोज में श्री० नाहटाजी भी थे। इसकी एकसे अधिक हस्तलिखित प्रतियाँ हमे सौराष्ट्र विश्वविद्यालयके चारणी साहित्य के हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डार हेतु मिली हैं। श्री नाहटाजी द्वारा प्रेरित किये जानेपर ही अब उसकी सूची आदिका भार उठा लिया है ।
बीच में यह कहना तो रह ही गया । सौराष्ट्र के चारण एवं चारणी साहित्यपर एक निबन्ध लिखकर उसे साइक्लोस्टाइल द्वारा मुद्रित कराकर मैंने सभी मित्रों एवं स्नेहियों को संशोधन एवं परिवर्द्धन हेतु भेजा था । उस समय सर्वप्रथम अपने विचार भेजनेवाले श्री नाहटाजी ही थे । तब मैं समझ सका कि आप चारणी साहित्यके उपासक - प्रहरी हैं । आपने इस सम्बन्ध में मुझे कुछ रचनात्मक टिप्पणियाँ भी भेजीं ।
अन्तमें मैं जब ध्रांगधा था, तब मेरे एक विद्यार्थी जिन्हें अपने निजी कार्यार्थ बीकानेर जाना था, को मैंने वहाँ श्री नाहटाजी से मिलने को कहा । वे भाई, आपसे मिलकर आये । इनपर नाहटाजीका अच्छा प्रभाव पड़ा। इन्होंने जो कुछ मुझे बताया उसे में यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ — "मैं उनसे, उनके ग्रन्थभण्डार में
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १४९
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