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समयमें, श्री नाहटाजी मुक्त-मानससे सभीके साथ हिल-मिल जाते हैं और सर्वत्र अपने स्नेह एवं सद्भावनाका प्रसार करते रहते हैं आपकी इस प्रकारकी सम-दर्शिता एवं सहृदयताकी सौरभ आपके लेखों द्वारा सर्वत्र प्रसारित होती हैं। यही कारण है कि अपने समाजकी आप एक बहुमूल्य-निधि माने जा सकेंगे, ऐसी मेरी धारणा है।
श्री नाहटाजी अंतिम दोनों पीढ़ियोंको (युवक-समाज एवं भावी युवकोंको) अपनी ओरसे सतत ज्ञानलाभ प्रदान करते रहते हैं, जो अद्यावधि चालू ही है। शोधकर्ता अपने द्वारा उपाजित कष्ट-साध्य अन्वेषणके फलको अन्तमें अन्यको प्रदान कर स्वयं कृतकृत्यताका अनुभव करे, इस प्रकारके विरले व्यक्तियोंमें आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजयजीके कालधर्म प्राप्त कर लेनेके अनन्तर वर्तमानमें कदाचित् एक मात्र श्री नाहटाजी ही अग्रगण्य संशोधक होंगे, यह सगौरव कहा जा सकता है। आपके बहरंगी व्यक्तित्वको आपकी ध्यानाकर्षक विशिष्टता ही मानी जा सकती है।
आपकी लेखनी न्याया-प्रपातके समान गतिशील प्रवाह और कहीं भी समाप्त न होनेवाली स्याही मानों अक्षरोंकी पंक्तियों द्वारा अविश्रान्त रही हो और आपके ज्ञान-वर्द्धक पत्र, लेख, ग्रन्थ आदि वर्तमान पत्रोंकी गतिसे समस्त देशमें प्रसारित हो रहे हैं। मेरे जैसे कई नवोदित लेखक, संशोधक एवं ज्ञानार्थीवर्ग श्री नाहटाजीके कर्मठ ज्ञान-यज्ञके विश्वविद्यालयके द्वारा खटखटाते होंगे। किन्तु, कुलपतिके रूपमें वयोवृद्धज्ञानवृद्ध आप सभीका सस्मित स्वागत करते हैं और अपने ज्ञानकी अमूल्य झोलीको निस्पृहभावसे सभीके समक्ष उडेल देते हैं। मन ही मन यह कह कर "पुत्रात् शिष्यात् पराजयम् ।" अपनी लेखनी को विश्राम देता हूँ।
आदरणीय नाहटाजी
श्री पुष्कर चन्दरवाकर यह कहना कठिन है कि हम दोनोंके मध्य कब, किस प्रश्न या किस मुद्दे पर प्रथम पत्र-व्यवहार प्रारम्भ हुआ? मेरे पास तो इस हेतु वर्तमानमें है केवल एक मात्र विस्मृति ।
अलबत्ता इतना याद है कि जब मैं पढारमेंसे लोकगीत प्राप्त कर रहा था, उस समय नल सरोवर परके गाँवोंमें विचरण कर रहा था। उनमें के शियाल गांवमें गया तो वहाँ स्व० पढार भक्त छगन पढारसे मिला। वयोवृद्ध, अशक्त, अपंग और अकिंचन । जिनकी आँखोंका तेज नष्ट हो चुका हो, डाढ़ी पर बाल उग आये हों, आंखकी पुतलियोंके आस-पास मात्र लालिमाकी झलक हो, शिरपर चीर-चीर हुआ-फटा हआ-और चींघियें निकल रहा एक वस्त्र हो, शरीरपर पहना हुआ वस्त्र ऐसा कि उसकी बाहें ही नदारद, कमरपरसे एक मैली-कुचैली धोती पहने हुए हों, नाकमेंसे स्राव बहता हो और आँखोंमेंसे अश्रु-धारा प्रवाहित होती हो, शरीरमें से दुर्गन्ध आती हो। ऐसे पढार भक्त और भजनीक, जिनकी कोई भी खबर लेनेवाला नहीं था। मैं, उनसे मिला तो उन्होंने मुझे अनेक भजन लिखाये और साथ ही लिखाया रूपांदेका रासड़ा।
मैंने इस रासको जब 'बुद्धिप्रकाश में प्रकाशित कराया, तब मुझे श्री नाहटाजीका पत्र मिला और साथमें मिली एक प्रति 'रूपांदेरी वेल', ऐसा मझे स्मरण है।
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १४७
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