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आपने निःस्पृह-भावसे मुझे प्रदान किया। यदि मुझे आपकी ओरसे मार्ग-दर्शन प्राप्त न होता तो यह कहना मेरे लिये अशक्य है कि तब क्या होता है ? प्रस्तुत ग्रन्थ द्वारा मेरी विद्वत्समाजमें ख्याति हो गई। इसका श्रेय श्री नाहटाजीको ही है, इसमें किसी भी प्रकारकी अतिशयोक्ति नहीं है। आप द्वारा प्रेषित साहित्यसामग्रीके आधारपर ही तो मैं विद्वत्मण्डलीमें खड़े रहने योग्य बन सका।
उक्त ग्रन्थके लेखनमें पूरे पाँच वर्ष व्यतीत हो गये । इसके प्रकाशक श्री मुलुण्ड अंचलगच्छ जैनसंघ, बम्बई द्वारा मुझे ताकीद करनेका प्रोत्साहन मिलता रहा। इस ग्रन्थके प्रेरक श्री सरिजीका स्वास्थ्य बिगड़ने लग गया था । अतः ताकीद (शीघ्रता) करनेका अर्थ मैं समझ चुका था। यदि मुझे कल्पनाके घोड़े दौड़ाने ही होते तो मैं इसे कभीका पूर्ण कर देता और यह ग्रन्थ सम्पूर्ण हो जाता। किन्तु, यहाँ तो परिस्थिति ही दूसरी थी। दुर्भाग्यसे ग्रन्थ समाप्त होनेसे पूर्व ही वे दिवंगत हो गये। अगले वर्ष उत्साहपूर्वक ग्रन्थका अनावरण हआ जो मेरे जीवनकी धन्य-घड़ी थी । ग्रन्थ-प्रेरक आचार्यश्री अब नहीं रहे, यह शोक भी विस्मृत कर देने योग्य नहीं था। उनका वर्षों पुराना स्वप्न साकार हो, उससे पूर्व ही वे हममेंसे चले गये। इसमें मेरी निष्फलता का संकेत मिलता है। मुझे अपनी स्थितिको स्पष्ट करनेका प्रयास इस ग्रन्थकी प्रस्तावनामें करना पड़ेगा, अतः इसे टालने हेतु अपनी ओरसे प्रस्तावना तक नहीं लिखी । इस अभावके साथ-साथ श्री नाहटाजी सहित अनेक विद्वानोंने मुझे कितनी और किस प्रकारकी साहित्य-सहायता दी है, इसका अपेक्षित वर्णन बिना लिखे ही रह गया।
तत्पश्चात् मुझे श्री नाहटाजीसे सर्वप्रथम साक्षात्कार करनेका अवसर पालीतानामें मिला। यह मेरे मार्ग-दर्शनके प्रति मुझे अपनी ओरसे पूज्य भाव व्यक्त करनेका स्वर्णावसर था। आपने इस अवसर पर मुझे विशेष जानकारी प्रदान की। परस्पर अनेकों विषयोंपर चर्चा हुई। रात्रिमें आपकी और सद्गत मुनि कान्तिसागरजीके मध्य हुई विद्वत्तापूर्ण चर्चा सुननेका आनन्द भी मुझे प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे रात्रिके १२ बजे तक दोनों प्रकाण्ड विद्वानोंके मध्य चल रही ज्ञान-गोष्ठियोंको मैं एकाग्रचित्तसे सुनता रहा था, यह मुझे अधावधि स्मरण है। यह था मेरे और आपके मध्य हए प्रथम साक्षात्कारका प्रसंग । तदनन्तर मुझे आपसे मिलनेका कोई अवसर ही नहीं मिला।
मुझपर आपकी इतनी गहरी छाप पड़ी कि मुझे विविध स्थानोंकी यात्रा कर दहाँके ऐतिहासिक प्रमाणोंको एकत्रित करनेकी मेरी इच्छा जागृत हुई। आपकी ओरसे इस दिशामें मुझे सूचित किया गया जो मुझे अत्यन्त पसन्द आया। तदनुसार मैंने प्रति वर्ष नवीन-नवीन प्रदेशोंमें जा-जाकर खोज (शोध) हेतु प्रवास करने की योजना बनाई। मैने जहाँ जहाँ से उपलब्ध हुई उस महत्वपूर्ण साहित्य-सामग्रीको एकत्रित की। उसके आधारपर मैंने 'ज्ञातिशिरोमणि' 'अंचलगच्छीय प्रतिष्ठा-लेख' 'गुर्जरदेशाध्यक्ष सुन्दरदास राजा विक्रमादित्य कौन था ?' आदि आदि पुस्तकें लिखीं जो प्रकाशित होती गयीं। अल्प समयमें ही 'अंचलगच्छीय रास संग्रह' नामक ऐतिहासिक रासोंका एक बृहद् संग्रह भी प्रस्तुत किया जायगा। जिसमें श्री नाहटाजी द्वारा प्रेषित साहित्य-सामग्री भी होगी।
अंगलगच्छ द्वारा जैन-शासनको दी गई अमूल्य भेंटकी विवरण-सूची सामान्यतया लम्बी है, जिसके लिए समस्त लोग गौरव-लाभ प्राप्त कर सकते हैं । किन्तु अंचलगच्छका प्रभाव वर्तमानमें लुप्त-सा होते हुए, उसके साहित्यके प्रति भी हमारी उपेक्षावृत्तिका जागृत होना, मनपर प्रभाव डालता है। गच्छ अधिनिवेषने भी इसमें सहयोग दिया होगा। यहाँ एतद्विषयक चर्चा अप्रस्तुत है। श्री नाहटाजी इस प्रकारकी संकीर्णवृत्तियोंके भोग कहीं भी नहीं बने, यह स्पष्ट है। इस प्रकारके साक्षात्कारका अपने अनुभव में मुझे कहीं भी अवसर नहीं मिला । जिस प्रकार वर्तमान लेखक 'बाड़ाबन्दी' (पक्षपात) से कभी मुक्त नहीं रह सकते, ऐसे
१४६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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