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मुझे आपकी ओरसे लौटती डाकसे उत्तर मिल गया। उसमें आपने मेरी प्रवृत्तिकी सराहना की और अपनी ओरसे यथाशक्य सहायता देनेका भी विश्वास दिखाया। पत्र पढ़कर मेरे आनन्दका पारावार नहीं रहा । अतः आपकी ओरसे भेजे गये इस प्रेरणा-संदेशने मेरे उत्साहमें वृद्धि कर दी।
मैंने दो-तीन पत्र हिन्दी अनुवाद करवाकर आपको भेजे । बादमें आपने मेरी इस कठिनाईको जानकर मुझे गुजरातीमें ही पत्र लिखनेकी सूचना भेजी। तबसे मैं अपने पत्र गुजराती में लिखता रहा और आप हिन्दी में। आपके अक्षर सुवाच्य न होनेके कारण मैंने आपके सम्मुख अपनी कठिनाई निवेदन की। अर्थात् आप अपने पत्र किसी औरसे लिखवाकर या टाइप कराकर भेजते रहें। इस प्रकारसे हम दोनोंके मध्य पत्रोंका आदान-प्रदान चलता रहा ।
मेरे हृदय पर आपके बहश्रुतत्वकी छाप तो पहलेसे ही थी किन्तु, नवोदित लेखकोंको प्रोत्साहित करनेकी आपकी वृत्तिने मेरे कोमल-मानस पर एक गहरी छाप अंकित कर दी, वह भी ऐसी कि कदापि विस्मृत न हो सके। आपहीने मेरी लेखन-प्रवृत्ति को गतिशील बनाया। मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि जैसे नवीन-युगमें मेरा यश प्रवेश हो रहा है।
आपके साथ सतत पत्र-सम्पर्कसे उत्कीर्ण लेख, ग्रन्थ-प्रशस्तियें, प्रति-पुष्पिकायें आदि आदि साहित्यके विशेष अध्ययनकी मुझे विशेष प्रेरणा मिली। इसीके कारण मुझमें ऐतिहासिक रासो, प्रबन्ध, पट्टावलियों आदि आदिकी प्रतिलिपियें संगृहीत करनेकी लगन उत्पन्न हुई । मुझे आपके पाससे अभिनव पाठ (पठन-सामग्री) प्राप्त होती रहती थी। अब मेरी लेखन-शैलीको नवीन मोड़ प्राप्त हुआ और 'अंचलगच्छोय लेख-संग्रह' के नामसे उत्कीर्ण लेखोंका मेरा प्रथम संग्रह प्रकाशित हुआ। इसमें आपने अपनी ओरसे 'किंचित् वक्तव्य' लिखकर मुझे प्रोत्साहित किया। आप, मेरी त्रुटियोंकी ओर संकेत करनेसे भी नहीं चके ।
इस प्रकारसे आप सुप्रसिद्ध प्रखर विद्वानोंकी भ्रान्तियें, त्रुटिये, स्खलन आदिका संशोधन करने में नहीं हिचकिचाते थे । कभी-कभी तो ऐसा भी प्रसंग आ जाता कि कोई विद्वान् अपने लेख पर आपकी ओरसे आलोचना किये जानेपर क्षब्ध होकर स्पष्टीकरण भी प्रकट करने हेतु बाध्य हो जाता था। तब श्री नाहटाजी अपनी ओरसे प्रमाण प्रस्तुत करते हुए अपने विचार व्यक्त करते। इस प्रकारसे पक्ष-विपक्षके मध्य अपनी अपनी विद्वत्ताके तीक्ष्ण तीर छूटते रहते । इतना होनेपर भी आपके मनमें किसी भी प्रकारकी कटुता दृष्टिगत नहीं होती। आप अनेकों पत्रोंमें लिखते ही रहते हैं । आप चाहें जिस विषय पर लेख लिखें, उनमें प्रसंगोपान्त चल रही साहित्य-प्रवृत्ति का ध्यान भी आकर्षित करते रहते हैं, जिनमें आपकी ओर से प्रोत्साहन-भाव भी व्यक्त होता रहता है । नवोदित लेखकोंके लिए आपकी ओरसे इस प्रकारका उल्लेख कितना अधिक उत्साह वर्द्धक होता है, इसका अनुभव स्वयं मुझे भी हुआ है। मेरी साहित्य-प्रवृत्तिके सम्बन्धमें आपने 'बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्' पटनाके अंकमें ऐसा ही उल्लेख किया है । उसको एक प्रति आपने मुझे भेजी। आपके समान बडे आदमी मेरे जैसे बालककी पीठको इस प्रकारसे थपथपा दें. तब किसका सीना गज-गज भर न फलेगा? इस प्रकारसे आपने मुझमें आत्म-विश्वासका संचार कर दिया। ऐसे असंख्य-दृष्टान्त बताये जा सकते हैं कि श्री नाहटाजीका नवोदित लेखकोंके प्रति कितना वात्सल्यभाव है, जो ऐसे प्रसंगोंसे विदित हो जाता है।
'अंचलगच्छदिग्दर्शन' के समान गूढ़ ग्रन्थ लिखनेका श्रेय सद्गत आचार्य श्री नेमसागरसूरिजीने मुझपर डाला, तब मुझे अत्यन्त कठिनाईका सामना करना पड़ा था। यद्यपि यह रचना मेरी महत्वाकांक्षाओंकी पर्ति करने योग्य थी तथापि उत्तरदायित्वका भार अत्यधिक ही था। श्री नाहटाके समर्थ मार्ग-दर्शनके अधीन
ने स्थिरतापूर्वक लेखनी अपने हाथमें ली और विश्वासपूर्वक लिखता गया। इस अवधिमें मेरा और आप (श्री नाहटाजी) के मध्य पत्रोंको आदान-प्रदान शृंखलाबद्ध चलता रहा । जो-जो मेरे उपयुक्त था, उन-उनको
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १४५
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