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________________ नवोदित लेखकवर्ग और श्री नाहटाजी श्री पार्श्व श्री अगरचन्दजी नाहटाके व्यक्तित्वका सृजन मुख्यतया पाँच प्रकारसे हुआ है। पंडित, संशोधक, विवेचक, संग्राहक और व्यावहारिक रूपमें । किन्तु मैं इनमें एक अन्य प्रकारको भी सम्मिलित करना चाहता हूँ। वह है 'मार्ग-दर्शक' । आपके पाण्डित्य, पर्येषणा, बहुश्रुतत्त्व, संग्रहनिष्ठा एवं व्यापारपटुताके सम्बन्धमें ज्ञातावर्ग अपनी-अपनी ओर से इस अभिनन्दन ग्रन्थमें प्रकाश डालेंगे और आपके अपरिमित विद्याव्यासंगकी यथास्थित प्रशस्ति करेंगे ही। मुझे तो मात्र एक नवोदित लेखकके रूपमें आपके व्यक्तित्वके छठे प्रकारका मूल्यांकन करना उचित प्रतीत होता है। आपके लेख एवं पुस्तकों द्वारा लगभग १८ वर्षकी आयुमें मैंने जब अपने विचार व्यक्त करने और अपने आपको 'लेखक' मान लिया, तभी से आपका अप्रत्यक्ष परिचय मुझे प्राप्त हो गया। किन्तु उस समय मेरे मस्तिष्कमें भाषाका भूत सवार था। उच्च अलंकारयुक्त भाषा ही उत्तम पुस्तकें लिखने हेतु पर्याप्त हैं यह मेरी उन दिनोंकी मान्यता थी। और इसी ही धुनमें 'श्री आर्यरक्षितसूरि' 'श्री जयसिंहसूरि', 'श्री कल्याण सागरसूरि' आदिके जीवन चरित्र लिखता गया। किन्तु मात्र भाषाके प्रवाहसे ही साहित्य-सागरको पार कर लेना मुझे अशक्य प्रतीत हुआ । जैसे-जैसे इस दिशामें अग्रसर होता गया वैसे-वैसे मुझे अपनी मर्यादाओंका ज्ञान होता गया। श्री नाहटाजीने भी खरतरगच्छके युगप्रधान आचार्योंके जीवनचरित्र सम्बन्धी प्रमाणभूत पुस्तक लिखी हैं। उनके साथ मेरी उपर्युक्त पुस्तकोंकी तुलना करनेपर मुझे अपने में संशोधन-वृत्तिकी न्यूनता स्पष्ट अनुभवमें आई। प्रमाणोपेत ग्रन्थोंके सजनमें सुप्रयुक्त भाषाके उपरान्त अन्वेषण-शक्तिको भी क्रियाशील करना चाहिये, तबसे मैं ऐसा मानने लगा। अब मैं सक्रिय रूपसे इस दिशामें विचार करने लग गया। तिसपर भी मेरे बाल मानसमें एक नवीन रहस्यका प्रादुर्भाव हुआ कि ऐतिहासिक प्रमाणोंकी अनुपस्थितिमें अपनी अन्वेषणात्मक शैलीकी योजना कैसे की जा सकती है ? संशोधन-कला एवं प्रमाणोंकी उपलब्धि परस्परावलम्बी होती है। प्रमाणोंको उद्धृत करना किम्बा निर्देश करना बिना संशोधन-कलाके प्राकट्यके प्रायः अपूर्ण रह जाते हैं। इसी प्रकारसे संशोधनात्मक प्रयास बिना प्रमाणोंको खोज अशक्यवत ही प्रतीत होती है। श्री नाहटाजी तो प्रमाणोंकी एक लम्बी संख्या सम्मुख रख कर अपने मन्तव्यका प्रतिपादन करते हैं। आपकी लेखन-शैलीमें विवरणात्मक विचारोंका अतिरेक दष्टिगत नहीं होता। मैं इस शैलीसे प्रभावित हुआ। किन्त, आपने ऐतिहासिक प्रमाणोंका खजाना कहाँसे हस्तगत कर लिया ? मेरे मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूपसे उत्पन्न हो गया। अतः आपके साथ पत्र-व्यवहार करने हेतु प्रेरित हुआ। आप जैसे लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक. मझ जैसे बने हए लेखककी ओर ध्यान देंगे भी? यह प्रश्न मेरे म्मख हिचकिचाहट उत्पन्न कर रहा था। किन्त. मेरी जिज्ञासाने इस द्विविधापर विजय प्राप्त कर ली और आपको भेजने हेतु एक पत्र लिख ही दिया। इस पत्र में मैंने अपनी ओरसे मेरी लगन एवं ध्येयका वर्णन कर उत्साहजनक वर्णन करते हुए आपसे मार्ग-दर्शनकी प्रार्थना की । बादमें मुझे स्मरण हुआ कि राजस्थान निवासी होनेके कारण आपको जो पत्र भेजा जाय वह हिन्दीमें लिखा हुआ हो तो उत्तम रहे । अतः मैंने अपने एक हिन्दी भाषी मित्रसे उसका हिन्दी अनुवाद करवा कर आपको भेजा, जिसके साथ उत्तर प्राप्त करने हेतु एक लिफाफा भी भेजा था। आपको उत्तर देनेका स्मरण बना रहे, इस आशयसे ही। मैं आपकी ओरसे उत्तरकी प्रतीक्षा करता रहा। १४४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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