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________________ अभिनन्दनीय नाहटाजी श्री गोपालनारायण बहुरा जब पहली भेंट सन् १९४८में हुई थी । यद्यपि उनके विषय में कई बार वारंड प्रायः चर्चा करते रहते थे परन्तु साक्षात्कार उसी दिन हुआ वे एक दिन जयपुर महाराजाका पोथीखाना देखने आये थे । उस समय मैं पोथीखाना के अध्यक्ष के पद पर कार्य करता था। श्री नाहटाजी अपनी बीकानेरी ऊँची पगड़ी, बन्द गलेका कोट, परन्तु बटन कुछ खुले हुए, धोती और देशी जूते पहने हुए सामान्य वेशभूषा में मेरे पास आए और बिना किसी भूमिका या औपचारिक परिचय के ही राजस्थानी भाषाके प्राचीन ग्रन्थोंकी प्रतियोंके विषय में पूछताछ करने लगे । जब मैंने उनका नामधाम पूछा तब मुझे श्री खारेजीके इस कथनका यथार्थ ज्ञान हो गया कि श्री नाहटाजी अनावश्यक औपचारिकतासे बहुत दूर रहते हैं और अपनी धुनमें कामकी बातोंको ही अधिक महत्त्व देते हैं । इसके बाद जब राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिर ( अब राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान) की संस्थापना सन् १९५०में जयपुर में हुई और मुनि श्री जिनविजयजी उसके सम्मान्य संचालक बने सबसे तो श्री नाहटाजीके उनके पास व प्रतिष्ठानमें पधारनेके प्रसंग बनते ही रहे और मेरा व उनका परिचय बढ़ता गया । प्राचीन साहित्योद्धार और संशोधनके लिए उनकी लगन और श्रमशीलता देखकर सहज ही सम्मान भावना मेरे मनमें जागी। मैंने जब कभी किसी भी जानकारीके लिए इनको लिखा था इनसे पृच्छा व्यक्त की तो इन्होंने अविलम्ब उसका उत्तर दिया। मैंने उनको चलता-फिरता ज्ञानकोष मान लिया। यही नहीं संशोधन क्षेत्रमें कार्य करने वाले एवं अन्य सम्बन्धित लोगोंसे सम्बन्ध बनाए रखना और उनको ज्ञानवर्धन के लिए प्रेरित करते रहने का अखण्ड व्रत-सा उन्होंने ले रखा है। पत्राचारके सोतेको वे अपनी ओरसे कभी सूखने नहीं देते और सम्बन्धोंको ताजा बनाए रखते हैं। उनकी स्मरण शक्ति भी बड़ी विलक्षण है। महीनों बाद भी जब पत्र लिखते हैं तो पूर्व पत्रके प्रसंग ज्योंके त्यों दोहरा देते हैं और विषय फिर अपनो मूल अवस्था में हरा हो जाता है। उत्तर न देने अथवा विलम्ब हो जाने पर वे कभी बुरा नहीं मानते और ऊपरी सभी बातोंको एक ओर रखकर विशुद्ध शैक्षणिक पक्षको अपनाते हुए सम्बोधित व्यक्तिको सत्साहित्यिक कार्य अथवा संशोधन के लिए सजग और प्रेरित करते रहते हैं । श्री अगरचन्दजी नाहटासे मेरी मेरे सम्मान्य मित्र श्री महताबचन्द्रजी श्री नाहटाजी व्यापारी होते हुए भी साहित्यसेवी हैं, धनी होते हुए भी निरभिमान हैं, आधुनिक रंगसे शिक्षा प्राप्त न होते हुए भी विद्वान् हैं, परस्पर विरोधी बहुविय कार्य व्याप्त रहते हुए भी विलक्षण स्मृतिशाली है, मितव्ययी होते हुए भी उदार हैं, स्वधर्मनिष्ठ होते हुए भी सर्वधर्मानुरागी है, कला और विद्याके अनन्य उपासक हैं । 1 अभय जैन ग्रन्थ संग्रह और ग्रन्थमालाके मूलमें जो भावना श्री नाहटाजीको रही है, वह सर्व विदित है। इस ग्रन्थ संग्रहकी विशेषता यह है कि अन्य अनुपलब्ध अथवा कष्टेन उपलब्ध सामग्री यहाँ पर सहज ही प्राप्त हो जाती है। जहाँ भी जो कुछ जैसे भी प्राप्त हो, उसको संगृहीत कर लेना श्री नाहटाजीका व्रत है । 'सर्व संग्रहः कर्तव्यः' कः कालो फलदायकः' यही उनका मूल मन्त्र है; और सच भी है इनके द्वारा संग्रहीत सामग्रीका उपयोग होता ही रहता है। साथ ही, श्री नाहटाजीका कला-संग्रह भी इनकी परिष्कृत रुचिका परिचायक है । इसमें आलतू - फालतू वस्तुओंको स्थान नहीं मिल पाता । रुचि और ज्ञानवर्धक सद्वस्तुएं ही इसमें यथेष्ट रूपमें एकत्रित की गई हैं । १३८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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