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________________ श्री नाहटाजीकी लेखन शैली स्वाभाविक ओर आडम्बर शून्य है । इनका विशुद्ध ज्ञान और तथ्यात्मक सूचनाएँ ही इनके लेखोंमें अवतरित होती है। ज्ञान पर गलेफ़ लगाना इनको रुचिकर नहीं है। हजारों लेख और शत-संख्या-चुम्बिनी इनके द्वारा संकलित, सम्पादित तथा लिखित पुस्तकें संशोधक-वर्गमें ही नहीं, चिन्तनशील पाठकोंको भी उपकृत कर रही हैं। इनके विकसित व्यक्तित्वका उद्घोष कर रही है । राजस्थानी भाषा और राष्ट्रभाषा हिन्दीके उन्नायक, एवं समुद्धारकर्ता मनीषी नाहटाजी राजस्थानकी गौरवमयी विभूति हैं। इनका अभिनन्दन राजस्थान प्रदेशकी साहित्यिक समृद्धिके एक सद्दपन्यासकर्ताका अभिनन्दन है। विद्याव्यासंगी श्री नाहटाजी श्री दलसुख मालवणिया श्री अगरचन्दजी नाहटा एक व्यापारी होते हुए भी साहित्य-संशोधनमें पूरा रस रख सकते हैं-यह व्यापारियोंके लिए एक आदर्श उपस्थित करता है। केवल व्यापार नहीं किन्तु अन्य भी अपनी रुचिके विषयमें भी रस लेनेसे जीवनमें एकरूपता नहीं रहती, वह वैविध्यपूर्ण बन जाता है-जीवनमें रस रहता है । श्री नाहटाजीने संस्कृत-प्राकृतका व्यवस्थित अभ्यास ही नहीं किया किन्तु 'पढता पंडित होय' इस न्यायसे उनकी गति संस्कृत-प्राकृतमें भी हो गई है। यह उनके दृढ़ और निरंतर अध्यवसायका परिणाम है । श्री नाहटाजी शायद हिन्दी स्कूल में भी बहुत नहीं पढ़े हैं किन्तु अनेक हिन्दी लेखकोंको लेखकी सामग्री तो देते ही हैं। इसके अलावा कई पी-एच. डी. के छात्रोंका अपूर्ण विषयमें मार्ग दर्शन करते हैं-यह भी उनके निरंतर विद्याव्यासंगका ही परिणाम है। हिन्दीके कविओं-खास कर आदिकाल और मध्यकालके कविओंके इतिहासके विषयमें तो वे एक विशेषज्ञ हो गए हैं। एक नामके कई कवि हों तो उनका विवेक कर देना-यह उनकी विशेषता है। जैन लेखकोंके विषयमें तो उनका ज्ञान किसी भी पंडितसे अधिक है-यह कहा जा सकता है। श्री नाहटाजीने अनेक ग्रन्थोंकी खोज की है किन्तु अनेक अज्ञात लेखकोंका भी उद्धार किया है। हिन्दीकी और जैनोंकी कोई भी पत्रिका देखें तो उसमें श्री नाहटाजीका लेख किसी नये तथ्य को प्रकाश देता है। न मालूम उन्होंने अपने साठ वर्षकी आयुमें कितने लेख लिखे । उसकी गिनती शायद पूरी तरहसे वे नहीं जानते होंगे। वे जहाँ भी जाते हैं किसी नई हस्तप्रतिकी तलाशमें रहते हैं या अपनी किसी शंकाका समाधान करनेके लिए हस्तप्रतिके भंडारकी खोजमें रहते हैं। उन्होंने स्वयं अपना हस्तप्रति-भंडार भी उतना बड़ा बना लिया है, जो किसी बड़ी संस्थासे टक्कर ले सकता है । अतिशयोक्ति के बिना कहा सकता है कि वे व्यापारी होकर भी चलती-फिरती एक संस्था ही नहीं, अच्छे प्राध्यापक भी हैं। उनकी कमाई कितनी है, कहा नहीं जा सकता किन्तु अच्छे व्यापारीके नाते कमाई ठीक-ठाक अच्छी होगी। किन्तु जीवनमें अति सादगी है और कहीं-कहीं तो अनावश्यक कुताई वे करते हैं। वह इसलिए व्यक्तित्व, कृतित्व और सस्मरण : १३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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