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ज्ञानके अक्षय स्रोत नाहटाजी
श्री कृष्णदत्त वाजपेयी १९४३में अपने व्यवसाय-कार्यसे कलकत्ता जाते समय नाहटाजी डॉ. वासुदेवशरण अग्रवालसे लखनऊ संग्रहालयमें मिलने गये । अग्रवालजीने मुझे उनसे मिलाया । नाहटाजीकी अतिसाधारण वेशभूषा तथा ज्ञानगरिमाकी विशिष्टताने मुझे बहुत प्रभावित किया । जैन कलाके संबंधमें उनसे बातचीत करते समय मुझे बड़ा आनंद मिला । इसके बाद तो नाहटाजी मेरे पत्राचारके एक प्रमुख व्यक्ति बन गये ।
१९४६में मैं मथुरा संग्रहालयका अध्यक्ष बना। उस समयसे हमारे पारस्परिक सम्पर्क बढ़े। नाहटाजी कई बार मथुरा पधारे । ब्रज साहित्य मंडल, मथुराकी ओरसे एक बार उनका अभिनंदन किया गया। हम सभी इससे गौरवान्वित हुए।
नाहटाजीकी व्यावसायिकी बुद्धि धनार्जनमें कितनी सफल रही, यह मैं नहीं जानता । परंतु साहित्यके क्षेत्रमें तो उन्होंने निस्संदेह कमाल कर दिया है। उनके बहुसंख्यक ग्रंथ तथा लेख इसके प्रमाण हैं। वे शोधार्थियों के लिए महान प्रेरणा-स्रोत हैं। उनका विपुल ग्रंथ-भंडार तथा आंतरिक ज्ञान भंडार-दोनों ही साहित्य-प्रेमियों और अनुसंधित्सुओंके लिए खुले हैं। हिंदी भाषा और साहित्यकी उन्होंने असाधारण सेवा की है। जैनधर्मके विभिन्न क्षेत्रों पर उनका कार्य स्वर्णाक्षरोंमें अंकित रहेगा।
नाहटाजीने जितना जोड़ा है उससे कही अधिक लुटाया है । यह साहित्यिक दानवीर चिरायु हो और बहसंख्यक जनोंको दिशा तथा प्रेरणा प्रदान करता रहे, यही भगवान से प्रार्थना है।
अभिवादन
डॉ० उमाकांत प्रेमानंद शाह करीब उन्नीस सौ बावनमें जब अहमदाबादमें अखिल भारतीय ओरियन्टल कॉन्फ्रेन्स मिलने वाली थी, तब प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथोंका एक बड़ा आयोजन हुआ था और आगम प्रभाकर स्वर्गस्थ मुनि श्री पुण्य विजयजीने अनेक जैन भंडारोंसे करीब आठ हजार हस्तलिखित प्रतियाँ मंगवाकर स्वयं अपनी ओरसे छानबीन करके प्रत्येक प्रतिका सिलेक्शन करके प्रदर्शनकी रचना की थी। उस समय उनकी सहायताके लिए मेरेको और मेरे जैसे इनके अन्य शिष्योंको रातदिन कुछ दिनों तक अपने साथ उस कार्यमें लगाये हुए थे। जब यह कार्य रातदिन चलता था, तब एक दिन शामको श्री अगरचंदजी नाहटा वहाँ पधारे और उनके स्वभावके अनुसार तुरंत ही प्रतियोंकी सूचियाँ पढ़ने में और अपने लिए नोंध करने में लग गये। मैं उस समय
र था । मुनि श्री पुण्यविजयजीने उनसे परिचय करवाया। यह मेरी उनसे प्रथम भेंट थी। मैं उनके विद्या प्रेमसे प्रभावित हो गया था। उनमें इतना प्रबल उत्साह और इतनी प्रबल कार्यशक्ति देखकर मैंने मनोमन इनको फिरसे प्रणाम किया।
उस समयसे आज तक हमारा परिचय बढ़ता रहा है। फिर तो प्रथम मुलाकातके बाद करीब छः सालके बाद मैं बीकानेर गया और उन्होंने अपने श्री अभयपुस्तकालयमें ही मुझे ठहराया और उनका पूरी तरहसे आतिथ्य का लाभ मैंने पाया। मेरे साथ वह जगह-जगह घूमे। वह एक दिनकी स्मृति आज तक १३६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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