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एक विशिष्ट संशोधक
श्री भोगीलालजी ज० सांडसरा मारू-गुर्जर भाषा साहित्य एवं जैन-इतिहास साहित्य और संस्कृतिके एक विशिष्ट संशोधक श्री अगरचन्दजी नाहटा मेरे मित्र-वर्गमेंसे है। मैं, लगभग पिछले ४० वर्षोंसे इनके नामसे परिचित रहा हूँ और अनुमानतया ३५ वर्षोंसे मेरा इनके साथ नियमित साहित्यिक पत्रव्यवहार चालू है ।
आजसे लगभग २५ वर्ष पूर्व अहमदाबादमें मुझे इनसे साक्षात्कार करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। तब ऐसा प्रतीत हआ कि मैं किसी ऐसे व्यक्तिसे मिल रहा हूँ, जो अपनी ओरसे जिज्ञासु एवं शोध-कार्य करनेवालोंकी सहायता करनेवाला है । मुझे आपकी साहित्यिक प्रवृत्तिका अधिकाधिक परिचय मिलता गया।
सन् १९५० में सद्गत पू० मुनि श्री पुण्यविजयजी जब जैसलमेरके ग्रन्थ-भण्डारके उद्धार हेतु जैसलमेर पधारे तब मैं और मेरे मित्र डॉ० जितेन्द्र जेतली भी जैसलमेर गये थे। उन दिनोंमें उन भण्डारोंके कार्य हेतु अपने दो सहायक विद्वान् श्री नरोत्तमदास स्वामी और श्री बद्रीप्रसाद साकरियाको साथ लेकर श्री नाहटाजी भी वहाँ आये थे। वहीं पर हमारा परस्पर परिचय और विशिष्ट-मैत्री सम्बन्ध स्थापित हुआ । जब हम वहाँसे वापस लौटे तो श्री नाहटाजीके साथ ही बीकानेर आये और इन्हीं के अतिथि बने।
बीकानेर आकर हमें नाहटाजीके ग्रन्थ-संग्रहका, बीकानेरके अन्य ग्रन्थ-भण्डारोंका एवं बीकानेरकी सुप्रसिद्ध अनूप संस्कृत लाइब्रेरीका अवलोकन करनेका लाभ मिला। मैंने इस भ्रमणका वर्णन 'एक साहित्यिक यात्रा' शीर्षकसे अपने गजराती लेखमें किया है. जो "संशोधन नी कड़ी" में प० २५१-२६२ पर प्रकाशित हुआ है।
व्यवसायसे व्यापारी होते हुए भी आप, अपनी प्रिय विद्या-प्रवृत्तिके लिये किसप्रकारसे सतत कार्यशील रहते हैं. यह हमें बीकानेर-प्रवासमें स्पष्ट प्रतीत हो गया। बादमें तो हम परस्पर अनेक बार मिलते रहे हैं । मैं जब अहमदाबाद छोड़कर बड़ौदा आ गया और यहाँ बड़ौदा के प्राच्य विद्यामन्दिरके अध्यक्ष पदपर नियुक्त हआ तो इसके अनन्तर भी हमारा साहित्यिक-सहयोग सतत चलता ही रहा है और नाहटाजीको लेखन एवं संशोधनके प्रति सतत जागरूक होनेका मुझे लाभ मिलता रहा।
हमारी यह मैत्री साहित्यिक ही न होकर व्यक्तिगत भी है। मेरी गुजराती पुस्तक 'जैन आगम साहित्यमें गुजरात' को ई० सन् १९५५ में बम्बई सरकार द्वारा २००० रु० का पुरस्कार मिला, तब इस ग्रन्थका एवं मेरे परिचयमें आपका एक विस्तृत लेख एक हिन्दी पत्र में आपने प्रकाशित कराया। मेरी अंग्रेजी पुस्तक 'लाइब्रेरी सर्कल आफ महामात्य वास्तुपाल एण्ड इट्स कन्ट्रीब्यूशन टू संस्कृत लिटरेचर' आपको ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक-दृष्टिसे उत्तम प्रतीत हुआ। नाहटाजीकी सूचनासे सद्गत श्री कस्तूरमलजी बांठियाने इसका हिन्दी अनवाद किया. जो बनारस विश्वविद्यालयमें विद्याश्रम द्वारा प्रकाशित किया गया है।
नाहटाजीने अब तक संशोधनात्मक हजारों लेख लिखे हैं । मेरे सम्पादनमें प्रसिद्ध होनेवाले त्रैमासिक 'स्वाध्याय' को भी आपके लेख मिलते रहे हैं। इनमेंसे चुने हुए मन-पसन्द लेख ग्रन्थके रूपमें प्रकाशित हों तो उत्तम रहे।
इन महानुभाव मित्र एवं समर्थ संशोधकको मैं अपनी शुभकामनायें अर्पण करता हूँ। मेरी कामना है कि आप आरोग्यमय दीर्घायुः प्राप्त करें और आपका यह जीवन-कार्य अत्यधिक वेगसे अग्रसर हो ।
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १३५
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