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अगम गगन से उतर धरा पर सरस सुवासित अगरचन्द वर । अगरु-धूममय-सुख-सौरभ से
हुआ धरा का महमह प्रांतर । ललित-कलित वसुधा के कण-कण हलस-किलक करते अभिवंदन । अवनी के विभु-वरदान सुघड़, शतकोटि तुम्हारा अभिनन्दन ।।
धवल चन्द्रिका अमल ऊर्मिता, कुलकूल खिलखिल किरण-किरण मिल, नव-जीवन-संजीवन लेकर,
सरस लासमय हास संजोकर, उतरी भू, ले मंगल स्पंदन, विनत विश्व-हित ऊर्ध्वारोहण ! सत्-शिव-सुन्दर के संवाहक, शतकोटि तुम्हारा अभिनन्दन !!
कितनी कृतियाँ, कितने सर्जक, थे बने काल के क्रूर असन, तुम साध-दीप को कर ज्योतित,
कर रहे अहर्निश प्राण-वपन । तेरी साधे तेरी कृतियाँ, माँ भारति के मंगल अर्चन ! साहित्य-सिंधु के अवगाहक, शतकोटि तुम्हारा अभिनंदन !!
निष्कम्प शिखा के ज्योति अमल, सुखकर बिहान के विकच कमल, माँ भारति के हे चिर साधक !
जन-जन-मंगल के आराधक ! हे अगरचंद ! दीपक अमंद, हे धर्मप्राण ! हे युगचारण ! हे मानवता के सम्बोधक, शतकोटि तुम्हारा अभिनंदन !!
है धन्यभाग वसुधा ललाम, साहित्य, संस्कृति, सुजनधाम, हैं धन्य धरा के प्राण-प्राण
ले लेकर तेरे सुयश-नाम । हे साधपंथ के सौम्यवती, युग-युग जीओ बन कीर्तिमान ! हे वाणी के वर वरदसुवन, शतकोटि तुम्हारा अभिनंदन !!
श्रद्धा-सुमन : १२१
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