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श्री नाहटाजी जैसे कर्मठ निष्ठावान्, लगनशील एवं कर्त्तव्यलीन व्यक्तिका ही यह साहस है कि इतना कठिन कार्य आपने सुगमतासे किया और एक आदर्श प्रस्तुत कर हिन्दी लेखकोंको असुविधाओंके बीच आगे बढ़नेके लिए प्रोत्साहित किया, विद्वान् ही विद्वान्के श्रमकी संस्तुति कर सकता है। इस सुभाषितके अनुसार डॉ० अग्रवालने अपने प्राक्कथनमें लिखा है कि "श्री अगरचंद नाहटा व भंवरलाल नाहटा राजस्थानके अतिश्रेष्ठ कर्मठ साहित्यिक है । एक प्रतिष्ठित व्यापारी परिवारमें उनका जन्म हआ। स्कूल-कालेजी शिक्षासे प्रायः बचे रहे। किन्तु अपनी सहज प्रतिभाके बलपर उन्होंने साहित्यके वास्तविक क्षेत्रमें प्रवेश किया और कुशाग्रबुद्धि एवं श्रम दोनोंकी भरपूर पूजीसे उन्होंने प्राचीन ग्रंथोंके उद्धार और इतिहासके अध्ययनमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। पिछली सहस्राब्दी में जिस भव्य और बहुमुखी जैनधार्मिक संस्कृतिका राजस्थान और पश्चिमी भारतमें विकास हुआ, उसके अनेक सूत्र नाहटाजीके व्यक्तित्वमें मानों बीजरूपसे समाविष्ट हो गए। उन्हींके फलस्वरूप प्राचीन ग्रन्थ भण्डार संघ आचार्य मंदिर, श्रावकोंके गोत्र आदि अनेक विषयोंके इतिहासमें नाहटाजीकी सहज रुचि है, और इस विविध सामग्रीके संकलन, अध्ययन और व्याख्यामें लगे हुए वे अपने समयका सदुपयोग कर रहे हैं।
जिस प्रकार नदी प्रवाहमें से बालुका धोकर एक-एक कणके रूपमें पौपीलिक सुधर्ण प्राप्त किया जाता था, उसी प्रकारका प्रयत्न 'बीकानेर जैन लेख संग्रह' नामक प्रस्तुत ग्रन्थमें नाहटाजीने किया है । समस्त राजस्थानमें फैली हई देव-प्रतिमाओंके लगभग तीन सहस्र लेख एकत्र करके विद्वान् लेखकोंने भारतीय इतिहासके स्वर्ण कणोंका सुन्दर चयन किया है । यह देखकर आश्चर्य होता है कि मध्यकालीन परम्परामें विकसित भारतीय नगरोंमें उस संस्कृतिका कितना अधिक उत्तराधिकार अभी तक सुरक्षित रह गया है। उस सामग्रीका उचित संग्रह और अध्ययन करनेवाले पारखी कार्य-कर्ताओंकी आवश्यकता है।....."प्रस्तुत संग्रहके लेखोंसे जो ऐतिहासिक और सांकृतिक सामग्री प्राप्त होती है उसका अत्यन्त प्रामाणिक और विस्तृत विवेचन विद्वान लेखकोंने अपनी भूमिकामें किया है ।....." श्री नाहटाजीने इस सुन्दर ग्रन्थमें ऐतिहासिक ज्ञानसंवर्द्धनके साथसाथ अत्यन्त सुरभित सांस्कृतिक वातावरण प्रस्तुत किया है, जिसके आमोदसे सहृदय पाठकका मन कुछ कालके लिए प्रसन्नतासे भर जाता है। सचित्र विज्ञप्तिपत्रोंका उल्लेख करते हुए १८९८के एक विशिष्ट विज्ञप्ति पत्रका वर्णन किया गया है, जो बीकानेरके जैन संघकी ओरसे अजीमगंज बंगालमें विराजित जैनाचार्यकी सेवामें भेजनेके लिए लिखा गया था। इसकी लंबाई ९७ फुट है, जिसमें ५५ फुट में बीकानेरके मुख्य बाजार और दर्शनीय स्थानोंका वास्तविक और कलापूर्ण चित्रण है। लेखकोंने इन सब स्थानोंकी पहिचान दी है।
इस पुस्तकमें जिस धार्मिक और साहित्यिक संस्कृतिका उल्लेख हआ है उसके निर्माणकर्ताओंमें सवाल जातिका प्रमख हाथ था। उन्होंने ही अपने हृदयकी श्रद्धा और द्रव्यराशिसे इस संस्कृतिका समृद्ध रूप संपादित किया था। यह जाति राजस्थानकी बहुत ही धर्मपरायण और मितव्ययी जाति थी किन्तु सांस्कृतिक और सार्वजनिक कार्यों में वह अपने धनका सदुपयोग मुक्तहस्त होकर करती थी।
ग्रन्थमें संग्रहीत लेखोंको पढ़ते हए पाठकका ध्यान जैनसंघकी ओर भी अवश्य जाता है। विशेषतः खरतरगच्छके साधुओंका अत्यन्त विस्तृत संगठन था। बीकानेरके राजाओंसे वे समानताका पद और सम्मान पाते थे। उनके साधु अत्यन्त विद्वान् और साहित्यमें निष्ठा रखनेवाले थे। इस कारण उस समय-यह उक्ति प्रसिद्ध हो गयी थी कि "आतम ध्यानी आगर पंडित बीकानेर।".......'प्रस्तुत संग्रहमें जो तीन सहस्रके लगभग लेख है उनमेंसे अधिकांश ११वींसे सोलहवीं शतीके बीचके हैं। उस समय अपभ्रंश भाषाकी परम्पराका साहित्य और जीवनपर अत्यधिक प्रभाव था। इसका प्रमाण इन लेखोंमें आये हुए व्यक्तिवाची नामोंमें १०६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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