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क्या था और उसमें शनैः-शनैः किस प्रकार परिवर्तन आया, इसका क्रमिक इतिहास इन लेखोंके अध्ययनसे भलीभाँति जाना जा सकता है।
मानवने किस प्रकार उन्नति की है तथा उसने अपने अवरोधोंको किस प्रकार निर्मूल बनाया है यह एक ऐसा विषय है जिसका पूर्ण परिज्ञान इन प्राचीन लेखोंके समीक्षात्मक अनुशीलनसे ही संभव है।
साधु-सन्तोंने निरन्तर भ्रमण कर आत्मोद्धारके साथ किन रूपोंमें जन-जागृतिको सबल बनाया है और जैनधर्मके सूक्ष्म तत्त्वोंका प्रचार किस रूपमें किया है, यद्यपि यह विषय ऐतिहासिक अवश्य है लेकिन इन पुरातन लेखोंमें भी इसपर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
धार्मिक श्रद्धासे वशीभूत होकर धनिकोंने अपनी संपत्तिका उपयोग एक ओर राष्ट्रहितमें किया है तो दूसरी ओर सुरम्य देवालयोंके निर्माण में करके अपनी धर्मभावनाको मूर्तरूप दिया है ।
इस लेख-संग्रहमें बीकानेर राज्यके २६१७, जेसलमेरके १७१ अप्रकाशित लेख है, जिनकी विस्तृत भूमिका भी प्रस्तुत की गयी है । इन लेखोंके अध्ययनसे यह ज्ञात हो सकेगा कि जैनमंदिरोंका क्या इतिहास है, इस धरतीपर किस प्रकार जैन-साहित्यकी रचना हुई है, साधु-साध्वियोंने कितनी गहन साधना करके स्वपर रूपको निखारा है तथा सार्वजनिक कार्यों में संलग्न रहकर नराधिपोंने अपनी सेवा-वृत्तिको किस प्रकार जनताके हितार्थ अर्पित किया है। जैनोंका एक ऐसा भी रूप है जो जन-जनके लिए आदर्श है। यह ठीक है कि ये लक्ष्मीपुत्र हैं, फिर भी इनकी दानशीलता अनुकरणीय है। देवमंदिरोंके साथ निर्मित उपासरे, धर्मशालाएँ, ज्ञान-भण्डार, दान-भण्डार, सती स्मारक, उत्सव-गह, भोजन शाला आदि इन अहिंसाप्रेमियोंकी उदारता के अमर कीर्ति स्तंभ हैं।
इन लेखोंके संग्रहमें जो कठिनाइयाँ श्रद्धेय श्री नाहटाको आई है. उनका विवरण उनके ही मुखसे
सुनिए
"इन लेखोंके संग्रहमें अनेक कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा है, पर उसके फलस्वरूप हमें विविध प्राचीन लिपियोंके अभ्यास व मतिकला व जैन-इतिहास सम्बन्धी ज्ञानकी भी अभिवद्धि हई। अनेक लेख व मूर्ति-लेख ऐसे प्रकाशहीन अँधेरे में हैं, जिन्हें पढ़ने में बहुत ही कठिनता हुई। मोमबत्तियाँ, टौर्चलाइट, छाप लेनेके साधन जुटाने पड़े, फिर भी कहीं-कहीं पूरी सफलता नहीं मिल सकी। इस प्रकार बहुत-सी मूर्तियोंके लेख उन्हें पच्ची करते समय दब गए एवं कई प्रतिमाओंके लेख पष्ठ भागमें उत्कीणित हैं, उनको लेने में बहुत ही श्रम उठाना पड़ा और बहुतसे लेख तो लिये भी न जा सके, क्योंकि एक तो दीवार और मूर्तिके बीच में अन्तर नहीं था, दूसरे मूर्तियोंकी पच्ची इतनी अधिक हो गई कि उनके लेखको, बिना मूतियोंको वहाँसे निकाले पढ़ना संभव नहीं रहा। मूत्तियाँ हटाई नहीं जा सकीं, अतः उनको छोड़ देना पड़ा।" कई शिलालेखोंको बड़ी मेहनतसे साफ करना पड़ा, गुलाल आदि भरकर अस्पष्ट अक्षरोंको पढ़ने का प्रयत्न किया गया । कभी-कभी एक लेखके लेने में घंटों बीत गए। फिर भी सन्तोष न होनेसे कई बार उन्हें पढ़ने
१, शुद्ध करनेको जाना पड़ा। इस प्रकार वषों के श्रमसे जो बन पड़ा, पाठकोंके सन्मुख है। हम केवल ५ कक्षा तक पढ़े हए हैं; न संस्कृत-प्राकृत भाषाका ज्ञान, वन पुरानी लिपियोंका ज्ञान, इन सारी समस्याओको हमें अपने श्रम व अनुभवसे सुलझाने में कितना श्रम उठाना पड़ा है, यह भुक्तभोगी ही जान सकता है । कार्य करनेकी सबल जिज्ञासा, सच्ची लगन और श्रमसे दुस्साध्य काम भी सुसाध्य बन जाते हैं, इसका थोड़ा परिचय देनेके लिए यहाँ कुछ लिखा गया है।"(बीकानेर जैन लेखसंग्रह, वक्तव्य, पृ०७) सत्य तो यह है कि "मनस्वी कार्यार्थी गणयति न दुःखं न च सुखम् ।"
जीवन परिचय : १०५
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