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श्रद्धय श्री अगरचंदजी नाहटाका
बीकानेर जैन लेख संग्रह प्रो० श्रीचन्द्र जैन, एम० ए०, एल० एल० बी०
श्री नाहटाका समस्त जीवन सरस्वतीकी आराधनाके लिए समर्पित है। कहा जाता है कि सरस्वती और लक्ष्मीका सहज विरोध है, लेकिन नाहटाजीका व्यक्तित्व इस कथनका अवश्यमेव एक अपवाद है। आपपर जितनी सरस्वतीकी कृपा है उतनी ही लक्ष्मीकी अमुकम्पा है। व्यापार-निपुण होते हुए आप एक सशक्त समालोचक, संपादक, लेखक तथा अन्वेषक हैं।
पाँच हजारसे भी अधिक आपके निबन्ध इस तथ्यको प्रमाणित करते हैं कि आप बहुज्ञ हैं और ऐसा कोई साहित्यिक विषय नहीं है जिसके आप गम्भीर विचारक न हों। सम्पादकरूपमें आपने ऐसे कई ग्रन्थोंका सम्पादन किया है जिनके अध्ययनमें मनीषियोंकी भी मनीषा कुंठित हो जाती है। राजस्थानी साहित्य-संस्कृतिके तो आप अधिकारी विद्वान् हैं। राजस्थानका कोई भी ऐसा साहित्यिक पत्र नहीं है जिसमें आपके प्रौढ़ विचारोत्पादक निबन्ध प्रकाशित न होते हों। विभिन्न अभिनन्दन ग्रन्थोंके तो आप सम्पादक रहे हैं। कई संस्थाओंके आप संस्थापक है, अभिभाषक हैं एवं सदस्य हैं । सुधी सम्पादकके रूपमें आपने राजस्थान भारती, राजस्थानी, मरुभारती, शोध-पत्रिका, मरुभूमि, आदिकी जो सार्वभौमिक प्रतिष्ठा निर्मित की है वह आपके अगाध-पांडित्य एवं अथक श्रमका उदाहरण ही है।
जैन-अजैन समस्त पत्र-पत्रिकाओं में आपके जो लेख प्रकाशित होते रहते हैं वे इस सत्यको साकार बनाते हैं कि आपका अध्ययन कितना विस्तृत एवं व्यापक है। आपकी विशेष रुचि जैनसाहित्य, इतिहास, राजस्थानी संस्कृति एवं हिन्दीके प्राचीन साहित्यके अनुशीलनमें अधिक है। परिणामस्वरूप आपके अवकाशके क्षण भी निरन्तर चिन्तन-मननमें ही व्यतीत होते हैं। आपके साहचर्यका जिनको पुण्योदयसे अवसर मिला है वे यही कहते हैं कि पूज्य नाहटाजी तो अजरामरवत् सरस्वतीको आराधनामें ही लगे रहते हैं । आज वे वार्धक्यमें हैं, फिर भी एक युवकके समान उनमें उत्साह है, प्रेरणा है तथा कार्य करनेकी क्षमता है । और तो और, आधुनिक युवक भी उन्हें सतत क्रियाशील देखकर चकित रह जाता है।
इस निबन्धमें मैं केवल उनके द्वारा सम्पादित बीकानेर जैनलेखसंग्रहके सम्बन्ध में कुछ लिखनेका साहस कर रहा हूँ। इस संग्रहका प्राक्कथन डॉ. वासुदेवशरण अग्रवालने लिखा है जो उनके गहन पाण्डित्यका अपूर्वरूप है।
यह तो स्पष्ट ही है कि लेखोंका संग्रह कठिन साधनाकी अपेक्षा करता है। बहुभाषाविद्, तत्त्ववेत्ता, तथा धैर्यवान् महापंडित ही ऐसे गूढ़ विषयकी ओर आकर्षित हो सकता है। सामान्य व्यक्तिको तो इस प्रकारकी रचनाओं के प्रति न रुचि होती है और न अनुरक्ति उत्पन्न हो पाती है ।
इस प्रकारके लेख बड़े महत्त्वके होते हैं। इनमें युगीन संस्कृतिके साथ-साथ इतिहास, भूगोल, कर्मकाण्ड, राजनीति, समाजविज्ञान आदि कई ऐसे विषय निहित रहते हैं, जिनका अनुशीलन प्रत्येक परिस्थितिमें आवश्यक माना गया है।
मूर्तिकला, स्थापत्यकला, चित्रकला, नृत्यकला, संगीतकला, लेखनकला आदिका प्रारंभिक स्वरूप १०४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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