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________________ आये हैं पाठक स्वयं विचार करेंगे कि इस मनीषीका अक्षर ज्ञान कितना अक्षर होता गया होगा। जैनाचार्य, प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता डॉ० मुनि जिनविजयके आप कृपापात्र हैं । मुनि कान्तिसागरजीका कर्मठ जीवन इन्हें दुलार दे सका है । त्रिपिटिकाचार्य महापंडित राहुल सांकृत्यायन इनके निकट सम्पर्क में रहे हैं । ओरि'यन्टल लैंग्वेजेज के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी, डॉ० सुकुमार सेन, डॉ० गौरीशंकर ओझा जैसे भाषा - शास्त्री लिपि - विशेषज्ञोंका सान्निध्य आपको सम्बल देता रहा है। प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियमके डायरेक्टर डॉ० मोतीचन्द आपके मित्रों में हैं । प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० वासुदेवशरण अग्रवालसे आपका सम्बन्ध एक अविदित कहानी बन गया है। प्रसंगवश उसका उल्लेख किया जायेगा । हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् व आलोचक डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ० दशरथ शर्मा तथा अन्य समसामयिक मनीषी-वर्गका स्नेह व सौहार्द आपको अनायास उपलब्ध होता आया है । अब हम अनुमान कर सकते हैं कि प्राइमरी शिक्षा समाप्त करने वाला यह भारतीय चिन्तक कितना शिक्षित, दीक्षित व प्रामाणिक ज्ञानका स्वाध्यायी धनी है और इस धनकी धरोहरका उद्गम स्थान कहाँ है । प्रकाशित पुस्तकोंकी भूमिकामें अंकित विद्वानोंकी सम्मतियाँ उक्त कथनकी साक्षी हैं । स्थान विशेषपर इनकी चर्चा पाठकोंको इस विषय प्रतीति दे सकेगी। मुझे विश्वास है प्रसंगात् आपके लिपिज्ञानके प्रति डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जीके उद्गार पर्याप्त होंगे। महानुभावी संप्रदायका एक ग्रन्थ है "पावापाठ" । ग्रन्थ प्राचीन नहीं, प्रत्युत ३०० वर्ष पहलेकी कृति है । ग्रन्थ मराठी में लिखा गया है पर लिपि उसकी सांकेतिक है । अगरचंदजीने उस पुस्तकको देशके जानेमाने विद्वानोंके पास पढ़ने तथा उसका अर्थ करने सानुरोध भेजा था, पर पुस्तक बैरंग वापस लौट आयी । अब बीकानेरकी प्रतिभाने कलकत्ता स्थित अपनी शक्तिका संस्मरण किया । भँवरलालजीने लिपिकी एक वर्णमाला तैयार की और ग्रन्थ आद्योपान्त पढ़ डाला । आवश्यकता हुई कि वैज्ञानिक पद्धति पर लिपि विज्ञानके मार्गदर्शक, भाषावैज्ञानिकों द्वारा अपने पठनके औचित्यको विश्लेषित किया जाय । भँवरलालजीने सुनीति बाबूको वह ग्रन्थ दिखाया और पढ़कर सुनाया। सुनीति बाबूने आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और कहा - " आपनी चोमोत्कार कार्ज कोरेचेन ।” सुनीति बाबूके हाथोंपर शब्द खेलते हैं, भाषाएँ उनकी चेरी हैं, विश्रुत विद्वान् हैं । उनकी यह आश्चर्य भरी स्वीकृति इस मूक साधक के ज्ञानकी अविदित कथा है । ऐसे ही एक बार श्री जिनदत्तसूरिकृत " अपभ्रंश -काव्यत्रयी" की व्याख्या में आये एक प्रसंगपर भँवरलालजीने आपत्ति की और महापण्डित राहुल सांकृत्यायनने अपनी मनःस्थिति ठीक की । देनेका काम प्रसंग था "कज्जी करइ बुहारी बुड्ढी" महापण्डितने अर्थ किया था "घरमें बुड्ढी औरतें झाडू करती हैं" आपने लिखा कि-पता नहीं भाषामर्मज्ञ और समाज मनोवैज्ञानिक तथा प्रसिद्ध समाजशास्त्रीने ऐसा क्यों लिखा । पद्य तो कहता है कि कज्जो ( कूड़ा करकट) बुड्ढी ( बद्ध, संगठित - बँधे हुए) बुहारी (झाडू) से ही सम्भव है । कुछ ऐसी ही पचासों आनुमानिक व्याख्याओंका प्रत्याख्यान इस प्राचीन भाषा - मर्मज्ञने किया है । 'ढोलामारू दोहा' के कई स्थलों पर की गई उचित आपत्ति नागरी प्रचारिणी पत्रिकामें अंकित है । डॉ० माताप्रसाद गुप्त जो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के एक इने-गिने प्राध्यापकों में रहे हैं, उन्होंने हिन्दी के आदि कालीन ग्रन्थों, जो विश्वविद्यालयीय उच्च कक्षाओं में पाठ्य थे, की व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं, जैसे हम्मीरायण तथा वसंतविलास इनकी आलोचनाके केन्द्र बन गये हैं । वस्तुस्थिति यह है कि हिन्दी साहित्यका आदिकाल जैन व बौद्ध महात्माओं, साधकों व सिद्धोंकी पृष्ठभूमि पर खड़ा है । नाथपंथकी साहित्यिक देन भी हिन्दी लिए एक स्तम्भ है, जिसने मध्यकालीन साहित्यको पूर्ण रूपसे प्रभावित किया है। फलतः अपभ्रंश साहित्यकी वैज्ञानिक विधाओं की जानकारीके अभाव में वस्तुस्थितिका ज्ञान असम्भव है । शौरसेनी प्राकृत में उपलब्ध समस्त ज्ञान गरिमा अपभ्रंश भाषामें लिपिबद्ध हैं. और यह सारा वाङ्मय देश के पश्चिमोत्तर भाग में लिखा ९४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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