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रचनाओंकी परम्परा, तारातंबोलके यात्रा सम्बन्धी कतिपय उल्लेख एवं पत्र, प्राचीन जैन राजस्थानी गद्यसाहित्य, राजस्थानी साहित्यका आदिकाल आदि-आदि निबन्ध उल्लेख्य हैं ।
आयु-वृद्धिके साथ साहित्यकारको अनुभूतियोंमें सघनता आती है, जीवनकी कर्कश-कठोर और कोमल भावनाएँ पनपकर एक विशाल प्रतिमाके रूपमें स्थापित हो जाती हैं एवं सांसारिक सम्पर्कजनित अनुभव, जो कभी क्षणिक होते थे, दे वार्धक्यमें पाषाण-रेखाकी भाँति गहरे और स्थिर बन जाते हैं । चिन्तनकी चपलतामें स्थिरता आ जाती है और वाणी गहनतम शब्दोंसे मुखरित हो उठती है। यही गहनता, निजात्मचिन्तनशीलता, अनुभवपरिपक्वता, गम्भीरता, परोपकारनिरता, उदारता, भाव-प्रवणता एवं परदुःखकातरता साहित्यकारके अखिल साहित्यको सूक्तियोंका एक अनुपम भाण्डार बना देती हैं। ऐसी स्थितिमें महावरको लालिमा सतीत्वका ओज बनती है, मुखका लालित्य दिनकरके तेजमें परिणत हो जाता है, मंथरगतिका चापल्य एक दृढ़ संकल्पका उद्घोष करने लगता है तथा केशोंकी कालिमा रौद्रका भयावह रूप धारण कर लेती है । नयनोंकी चपल चितवनमें अगाध अनुभव एक ऐसी अनुरक्ति समुत्पन्न कर देता है जो जनताके प्रबोधनार्थ प्रतिक्षण सुभाषितोंके रूपमें मुखरित होने लगती है।
यौवनका मदिर सरस राग-रति-रंग वार्धक्यके गहन चिन्तनके रंगोंसे रंजित होकर जीवनकी वास्तविकतासे अवगत होता है और उसके कल्पित अभिमानकी व्यग्रता शीघ्र तिरोहित हो जाती है। इसीलिए परिपक्व बद्धि समत्पन्न वाणीके स्वर जगतमें सभाषितके रूपमें अंगीकार किये जाते हैं।
यहाँ श्री नाहटाजीकी कुछ सूक्तियाँ (सुभाषित) उद्धृत की जाती हैं जो उनके निबंधोंमें अनायास आ गयी हैं
यह विश्व विविध प्रकारके प्राणियोंका शम्भु मेला है। प्रत्येक मनुष्यकी आकृति, भाषा और प्रकृति अलग-अलग प्रकारकी पायी जाती है । (नवीं शतीका एक महत्त्वपूर्ण अमूल्य ग्रन्थ-धूख्यिान)।
(२) स्त्रो जाति भावुक और कोमल स्वभावशीला होते हुए भी जब वह अपने सत्त्व, तेज और कर्तव्यनिष्ठापर आती है तो बड़े-बड़े शूरवीरोंके छक्के छुड़ा देती है । सहनशीलताकी तो वह साकार मूर्ति है, अतः रणक्षेत्रमें चण्डिकाका रूप धारण करती है तो अपनी शीलरक्षाके लिए, मर्यादारक्षाके लिए हँसती-हँसती जौहर (यमगृह) की जलती अग्निमें कूद पड़ती है। (कविवर धर्मवर्द्धनकृत गोलछोंकी सती दादीका कवित्त)
मनुष्य विचारता कुछ है और होता कुछ है। प्रयत्न करने पर भी वह भवितव्यताको टाल नहीं सकता और इच्छा न होनेपर भी कुछ ऐसे प्रसंग घट जाते हैं जिन्हें बुद्धिपूर्वक कोई भी मनुष्य कभी नहीं कर सकता। (मथुराका एक विचित्र प्रसंग)
(४) १. शक्तिका सदुपयोग और दुरुपयोग व्यक्तिपर निर्भर है । २. केवल इस लोककी ही नहीं परलोककी भी सिद्धि मानवकी बुद्धिपर ही निर्भर है। ३. जीवन सही रूपमें एक कला है । इस कलाकी प्राप्ति करना प्रयत्नसाध्य है।
(मूरख-लक्षण, साधना, पृ० २७,२८)
जीवन परिचय : ८५
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