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और सन्ताप अभिव्यक्त किया गया तो दूसरी ओर इस प्रकारके उदात्त साहित्यके संरक्षण एवं प्रकाशन की तरफ प्रबुद्ध विद्वत्समाजका ध्यान भी आकर्षित किया गया है। इस प्रकारके लघु उपक्रम बड़े उपयोगी सिद्ध हुए हैं । श्री नाहटाकी निबन्धकलाका यह वैशिष्ट्य अन्य निबन्धकारोंके लेखांमें अप्राप्त सा है । इस सन्दर्भ में निम्न कतिपय निबन्ध पठनीय हैं :
१. एक अज्ञात ऐतिहासिक बेलि (शोधपत्रिका ) ।
२. खरतरगच्छके आचार्योसम्बन्धी कतिपय अज्ञात ऐतिहासिक रचनाएँ। (श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्ण महोत्सव ग्रन्थ) |
३. कवि विजयशेखरके कतिपय अनुपलब्ध रास । ( परिषद् पत्रिका )
४. कविवर जान और उसके ग्रन्थ । ( राजस्थान भारती )
५. कविवर सूरत मिश्र । ( व्रजभारती - सं० २००९)
६. कवि जगतनन्द सम्बन्धी कुछ विशेष जानकारी । ( ब्रजभारती अंक १ वर्ष १६ )
७. एक मुसलमान कविकी अज्ञात रचना : पेमाइ कथा । आदि इस प्रकारके निबन्धोंकी एक बड़ी संख्या है ।
लोक-साहित्य एवं संस्कृतिके निबन्धोंको उपक्रमात्मक पंक्तियाँ बड़ी साधारण तथा सर्वजनबोधगम्य हैं । प्रचलित शब्दों का प्रयोग करके श्री नाहटाने इस तथ्यको प्रमाणित कर दिया है कि वे संस्कृतनिष्ठ भाषा के लिखने में पूर्ण समर्थ होते हुए भी लोक-गम्य बोलीमें भी पूर्ण अधिकारसे लिख सकते हैं ।
राजस्थानी भाषाका बात - साहित्य बहुत ही विशाल और महत्त्वका है । विविध प्रकारकी सैकड़ों वार्त्ताएँ गत ३०० वर्षों में लिखी जाती रही हैं जिनमें से कई केवल गद्य में हैं, कई पद्यमें और कई गद्य-पद्य - मिश्रित । [ कृपाराम वणा सूर कृत सगुणा- सत्र सालरी बना ]
राजस्थानी भाषाका बात - साहित्य बहुत विशाल व विविध प्रकारका है। बहुत सी बातें ऐतिहासिक वाक्यों व स्थानोंसे सम्बन्धित हैं, यद्यपि वे अर्द्ध ऐतिहासिक ही कही जा सकती हैं, पर उनके द्वारा बहुत सी नई व कामकी जानकारी मिलती है। एक बात कई प्रकारसे लिखी हुई मिलती है । [ एक अपूर्ण प्राप्त महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक बात ]
यह विश्व विविध प्रकार के प्राणियोंका शम्भु मेला है। प्रत्येक मनुष्यकी आकृति, भाषा और प्रकृति अलग-अलग प्रकारकी पाई जाती है । कोई प्रकृतिसे बहुत ही सरल होता है तो कोई बहुत ही धूर्त प्रकृतिका होता है । अनादिकालसे यह प्रवाह चला आ रहा है । ग्रन्थातरोंमें धूर्तकी कहानियोंका अच्छा वर्णन मिलता है । यह तो आज भी हमारे प्रत्यक्ष है ही ? कई-कई धूर्त बड़ी गप्पें हाँका करते हैं जिनको सुनकर बड़ी हँसी आती है और कौतूहल होता है । ( धूर्त्ताख्यान नवीं शतीका एक महत्त्वपूर्ण अमूल्य ग्रन्थ )
श्री मान् नानाजीकी यह प्रवृत्ति विशेषतः प्रशंसनीय है कि वे शोधात्मक निबन्धोंमें अपनी मान्यताको प्रतिष्ठित करने के लिए संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी आदिके उद्धरणोंको देते हैं तथा तर्कों के माध्यम से स्वकथन की परिपुष्टि करते । यह इनकी तार्किकशैली साहित्यिक शोध निबन्धों में सर्वत्र परिलक्षित होती है । इस सम्बन्ध में आदिकालीन राजस्थानी जैन साहित्य मथुरामें रचित तीन हिन्दी ग्रन्थ, महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रणकी वीर सतसई की पूर्ति, जैन प्रबन्ध-ग्रन्थोंमें उद्धृत प्राचीन भाषा-पद्य, प्राचीन जैनग्रन्थों में कुल और गोत्र, कृष्ण-रुकमणि बेलिकी टीकाएँ, कतिपय वर्णनात्मक राजस्थानी गद्य-ग्रन्थ, कवि मयण बम्बका महत्त्वपूर्ण परिचय, १५वीं शताब्दीका महत्त्वपूर्ण अज्ञात ग्रन्थ, पृथ्वीराज रासोमें उल्लिखित ५२ वीरोंकी नामावली, दवावैत संज्ञक ८४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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